सादा जीवन उच्च विचार के विग्रह थे प्रो. पूर्णमासी राय
ऐसे साहित्य मनीषी थे प्रो. पूर्णमासी राय
डॉ. पूर्णमासी राय एक ऐसे साहित्य मनीषी थे, जो दिखने में जितने साधारण थे विद्वता और सज्जनता में उतने ही विशिष्ट एवं शिष्ट । उनकी उपलब्धियों के विभिन्न पन्नों को करने के लिए कई रंगों की आवश्यकता होगी, उनका जन्म उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिलान्तर्गत पिपरी ग्राम में 3 जून 1928 को एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा गांव के पाठशाला में हुई तथा उच्च शिक्षा काशी हिंदी विश्वविद्यालय वाराणसी में ।उन्होंने 1953 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी से एम.ए. हिंदी की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की तथा हिंदी कृष्ण भक्ति साहित्य में मधुर भाव की उपासना विषय पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में 1958 में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। वे प्रारम्भ से ही विद्या व्यसनी रहे। इन्होंने 1971 ई. में स्वतंत्र विद्यार्थी के रूप में मगध विश्वविद्यालय से संस्कृत मेंएम.ए. की परीक्षा पास की।
1956 से फरवरी 1963 तक जैन कॉलेज आरा में, तथा मार्च 1963 से 1990 तक स्नातकोत्तर हिंदी विभाग मगध विश्वविद्यालय बोधगया में अध्यापन कार्य किया। जनवरी 1990 में मगध विश्वविद्यालय बोधगया से प्रोफेसर एवं अध्यक्ष पद से अवकाश ग्रहण किया। उनका संपूर्ण जीवन साधना एवं सरस्वती की आराधना में बीता। उनके व्यक्तित्व का ग्राफ उत्तरोत्तर उध्वर्मुखी रहा। जिस सादगी से उन्होंने अपना जीवन प्रारंभ किया था, उसका निर्वाह अंत तक उसी सादगी से कर दिया।7.1.2022 को वाराणसी में गंगा किनारे सामने घाट पर उन्होंने अपना भौतिक शरीर त्याग दिया। कबीर के शब्दों में जस की तस धर दीनी चदरिया।
2011 में उनकी आत्मकथा जन्म भूमि से कर्म भूमि अनुभव के झरोखों से प्रकाशित हुई, जिसमें उन्होंने लिखा है कि" जीवन के विविध रंग है उन रंगों से जीवन का ताना-बाना बुना जाता है। मेरा जीवन भी आम आदमी का जीवन रहा। उसमें कोमल भावनाओं का संसार है, धधकती ज्वाला में चलने का साहस है,सच्चाई को अभिव्यक्त करने की लालसा है ,उदातता को बनाए रखने का जज्बा है, साहित्य को जीवनी शक्ति स्वीकारने का संकल्प है कर्तव्यनिष्ठा जीवन जीवन का मूल मंत्र है।"
यह आत्मकथ्य उनके जीवन की सादगी एवं कर्तव्य परायणता को ज्योतिष करता है ।कर्म ही पूजा है यह उनका मूल मंत्र रहा है।सादा जीवन उच्च विचार के वे साक्षात विग्रह थे:
अपनी बोली अपना वेश,
अपनी संस्कृति अपना देश।
सारे सहज सुखो का सार,
सादा जीवन उच्च विचार।
वे अपने आचार विचार और संस्कार सभी दृष्टियों से उच्च कोटि के शिक्षक थे।अपने जीवन में अनेक शिक्षकों से पढ़ने का अवसर मुझे मिला है ,लेकिन जिन प्राध्यापकों के अध्यापन शैली का अमिट प्रभाव मेरे व्यक्तित्व पर पड़ा है, उनमें तीन का नाम में सम्मान पूर्वक लेने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं ;डॉ. पूर्णमासी राय डॉ. वचन देव कुमार और डॉ. दीनानाथ सिंह ।डॉ. पूर्णमासी राय परम सात्विक शिक्षक रहे हैं। छात्र हित ही उनका ध्येय रहा है ।अपनी व्याख्या द्वारा वे छात्रों के हृदय में उतर जाना चाहते थे और तन्मय होकर अध्यापन कार्य करते थे ।छात्र-छात्राओं का अपार स्नेह उन्हें मिला ।उनका व्यक्तित्व जितना सात्विक था कृतित्व उतना ही बहुआयामी:
1 नंददास और उनका भंवर गीत 1996
2 उर्दू आलोचना स्वरूप और विकास 1969
3 हिंदी कृष्ण भक्ति साहित्य में मधुर भाव की उपासना 1974
4 टी एस इलियट और उनका क्लास सिक्स 1974
5 तुलसी भूषण 1996
6 व्यवहारिक समीक्षा सिद्धांत और विनियोग 1998
7 हनुमान नाटक भाषा उर्फ राम गीत 2004
8संस्कृति प्रकृति बारहो मास 2005
9 अमर गीता सार बोध और व्याख्या 2009
10 भारतीय जीवन दर्शन में गंगा 2009
11 जन्म भूमि से कर्मभूमि(आत्म कथा) 2011
संपादित कृतियां:
शुक्लोत्तर समीक्षा ,काव्य मंजरी, काव्य रसायन, साहित्य निबंध, सामयिकी, और कथांतर।
सम्मान:
आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र सम्मान से सम्मानित।
लगभग 30 वर्षों तक मगध में हिंदी भाषा और साहित्य का अलख जगाने वालों में डॉ पूर्णमासी राय की अपनी अलग ही अस्मिता रही है। उनकी क्षमता काफी प्रभावशाली आचार्य रूप में दिखती है तो कभी भाषा साहित्य के बहुआयामी व्यवहार के क्षेत्र में सक्रिय नजर आती है। अध्यापन शैली से लेकर शोध निर्देशन तक उनका वैदुष्य ही उनकी पहचान रही है ।समीक्षा से लेकर मूल्यांकन तक अध्ययन शीलता उनकी विशेषता रही है। कितनी जगहों पर कितनी बार उन्होंने हिन्दी भाषा का जयघोष किया इसकी कोई गणना नहीं। वे न जाने कितनी अधिक भारतीय हिंदी परिषदों एवं समितियों के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष एवं सभापति रहे ,स्वयं उन्हें भी पता नहीं। पूर्ण होकर भी अपने को अपूर्ण मानना उनकी विनम्रता का परिचायक है :-
नाम पूर्ण जाना न पूर्ण,
भ्रम ही भ्रम में जीवन पाला।
चंपे का चंचरीक बनकर,
निकला न कभी मन का काला।।
उनका हौसला बुलंद था और दूसरों को भी वे बुलंद करते रहे।तभी तो उन्होंने 95 वर्ष की लंबी आयु पाई। उन्होंने अपनी आत्म कथा में घोषणा की है कि
न पूछो कि है मेरी मंजिल कहां, अभी तो सफर का इरादा किया है।
न हारूंगा मैं उम्र भर,
किसी से नहीं ,खुद से वादा किया है।
मृत्यु का अर्थ जीवन का अंत नही,जीवन की पूर्णता है।स्वनामधन्य डा पूर्णमासी राय पूर्ण थे और पुनः पूर्ण मे तदाकार हो गए।उन्होंने न केवल अपने पूरे परिवार का ऐसा सुदृढ़ निर्माण किया अपितु शिष्यों की ऐसी मंडली तैयार की है कि वे युगों युगों तक उनके द्वारा याद किए जाते रहेंगे।हार की जीत के कहानीकार सुदर्शन के शब्दों में ऐसा 'उन्होंने अपनी निज की हानि को मनुष्यत्व की हानि पर न्योछावर कर दिया ।ऐसा मनुष्य मनुष्य नहीं देवता है।