इमाम हुसैन के आदर्श पर चलना असली मुहर्रम, मौलाना कबीर हुसैनी की तकरीर

चंदौली जिले के मुख्यालय पर करबला की कहानी में सिर्फ इंसानों की भूमिका नहीं थी, बेजुबान जानवरों ने भी इमाम हुसैन के साथ मिलकर इस लड़ाई में अपना बेशकीमती योगदान दिया।
 

अजाखाना-ए-रजा में 8 वीं मुहर्रम को निकला दुलदुल

अलम और ताबूत का दिखेगा जलवा

भारी तादाद में उमड़े अज़ादार

चंदौली जिले के मुख्यालय पर करबला की कहानी में सिर्फ इंसानों की भूमिका नहीं थी, बेजुबान जानवरों ने भी इमाम हुसैन के साथ मिलकर इस लड़ाई में अपना बेशकीमती योगदान दिया।

दुलदुल इमाम हुसैन के घोड़े का नाम था जिसने जंग में आखिर तक इमाम के साथ लड़ाई लड़ी और इमाम के शहीद होने के बाद सबसे पहले उनके खेमे में जाकर उनके न होने की सूचना दी। अज़ाखाना ए रज़ा में मुहर्रम की आठवीं तारीख की मजलिस खिताब फरमाते हुए मौलाना अली कबीर हुसैनी ने इंसान और बेजुबान घोड़े के रिश्ते की अनूठी कहानी सुनाई।  मौलाना ने पढ़ा कि ऐसी रवायात हैं कि जब दुलदुल इमाम की शहादत के बाद खेमेगाह में पहुंचा तो उसके शरीर पर सैकड़ों तीर थे और उसकी आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे। तब से हर साल मुहर्रम में दुलदुल का जूलूस निकलता है जिसके जरिए इमाम के बेजुबान साथी को याद किया जाता है। 

 मुहर्रम की तकरीर करते हुए मौलाना ने ये भी कहा कि  मुहर्रम सिर्फ मातम करने और इमाम हुसैन के नाम पर रोने का नाम नहीं है। मुहर्रम इमाम हुसैन के आदर्शों पर चलने का नाम है। मुहर्रम हर साल ये संदेश देता है कि समाज को तोड़ने वाले तत्वों के खिलाफ़ अगर खड़ा होना पड़े तो खड़ा होना चाहिए।  बिना हिचके और बिना डरे। 


करबला की जंग सात मुहर्रम को शुरू हुई थी और मुहर्रम की दसवीं तारीख तक रसूलल्लाह के नवासे इमाम हुसैन और उनके बहत्तर साथी शहीद हो गए। इमाम हुसैन ने अपना सिर कटा दिया लेकिन बादशाह यजीद के आदेश नहीं माने। यजीद इमाम हुसैन के जरिए अपने थोपी गई नीतियां जनता के बीच फैलाना चाहता था लेकिन इमाम ने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया। 

जिले की मशहूर अंजुमन यादगारे हुसैनी दुलहीपुर मसायबी नौहों के बीच अजाखाने में दुलदुल, अलम और ताबूत का जूलूस भी निकला। अलम इमाम हुसैन के भाई हजरत अब्बास की बहादुरी का प्रतीक है। हजरत अब्बास युद्ध के लिए जाते वक्त अपने हाथ में अलम रखते थे वहीं ताबूत इमाम हुसैन के बेटे अली अकबर की शहादत का प्रतीक है।

अली अकबर अट्ठारह साल के थे जब उन्हें करबला के मैदान में यजीदी सेना ने घेरकर शहीद कर दिया। यादगारे हुसैनी के अलावा अंजुमन अंसारे हुसैनी रसूलपुरा बनारस, अंजुमन गुलजारे पंजतन डिग्घी, अंजुमन जव्वादिया मकदूमाबाद लौंदा और अंजुमन अब्बासिया सिकंदरपुर ने भी अपने कलामों के जरिए करबला के मंजर पेश किए।  आठवीं मजलिस के जूलूस में जिल के अलावा बनारस, मिर्जापुर, गाजीपुर, दुलहीपुर, ऐंलहीं के अजादार बड़ी संख्या में जुटे और इमाम हुसैन की कुर्बानी को याद कर पुरनम आंखों से उनकी शहादत को सलाम किया। इस दौरान मायल चंदौलवी, सादिक, रियाज, अनवर, मोमम्मद इंसाफ, सरफराज पहलवान, अली इमाम, डाक्टर गजन्फर इमाम, दानिश हैदर,  परवेज लाडले, आसिफ इकबाल, राजू टाइगर, पपलू भाई, इआरिफ सिकंदरपुरी इत्यादि मौजूद रहे।