14 जनवरी की जगह 15 जनवरी को क्यों मनायी जाती है संक्रांति, जानिए क्या होगा 2081 के बाद
संक्रांति को लेकर बेहद साख जानकारी
1935 के पहले 13 जनवरी को मनाते थे संक्रांति
2008 के बाद क्यों 15 को संक्रांति मनायी जाने लगी है...और 2081 के बाद फिर बदलेगी तारीख
वैसे तो हम लोग बचपन से सुनते आ रहे हैं कि मकर संक्रांति का पर्व 14 जनवरी को मनाया जाता रहा है। हमारे बड़े बुजुर्ग भी अक्सर यह त्यौहार 14 जनवरी को मनाते थे, लेकिन धीरे-धीरे 14 जनवरी से संक्रांति का पर्व 2 तारीखों को पर मनाया जाने लगा। अब यह पर्व कुछ जगहों पर 14 जनवरी को और कुछ जगहों पर 15 जनवरी को मनाया जाता है। ऐसी स्थिति में बहुत सारे लोग दुविधा में रहते हैं कि आखिर संक्रांति किस दिन पड़ रही है।
कुछ लोग इसके लिए पंडित जी के पंचांग को भी दोषी ठहराते हैं और कहते हैं कि ऐसा कुछ लोग दान दक्षिणा के चक्कर में करते हैं और यह सारा खेल पंडितों का ही है। दरअसल हम आपको यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि यह सारा खेल संक्रांति काल के लेकर कुछ खास कारणों से है। संक्रांति का काल का अर्थ होता है एक समय काल से दूसरे समय काल में जाने का समय। इसे अंग्रेजी भाषा में टाइम ट्रांजैक्शन कहते हैं । इस काल की गणना में बदलाव होने की वजह से तिथियों में बदलाव होता नजर आ रहा है।
अब हम 14 जनवरी की जगह 15 जनवरी को इस पर्व को मना रहे हैं, लेकिन अब धीरे-धीरे अगले 58 सालों में लगभग 2081 आते-आते यह संक्रांति 15 जनवरी को ही हुआ करेगी। जैसा कि हम सब जानते हैं कि सूर्य के धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करने के दिन मकर संक्रांति को मनाने की परंपरा है। ज्योतिष के जानकारों के अनुसार हर साल इस संक्रमण में 20 मिनट का विलंब होता जा रहा है। इस प्रकार 3 वर्षों में यह अंतर लगभग 1 घंटे का हो जाता है। अगले 70 वर्षों में यह फर्क पूरे 24 घंटे का हो जाएगा।
आमतौर पर सायं 4:00 बजे के बाद संध्या काल माना जाता है और भारतीय ज्योतिष विज्ञान के अनुसार सूर्यास्त के बाद सूर्य की गणना से संबंधित कोई कार्य अगले दिन के लिए माना जाता है। इसी हिसाब से मकर संक्रांति सन 2008 से 15 जनवरी को मनाई जाने लगी है। इस गणना के अनुसार 2008 से लेकर 2080 तक मकर संक्रांति का पर्व 15 जनवरी को ही मनाया।
इसके बाद धीरे धीरे यह तारीख 16 जनवरी की ओर खिसकने लगेगी। वैसे 1935 से 2008 तक यह पर्व 14 जनवरी को मनाया जाता था, लेकिन 1935 के पहले इसे 13 जनवरी को मनाया जाता रहा होगा और उसके 72 साल पहले इसे 12 जनवरी को मनाने की परंपरा रही होगी।
यह सब गणनाएं वैदिक ज्योतिष व गणितीय गणना पर आधारित है और इसी हिसाब से यह बदलाव होता रहता है।