दुर्भाग्य को नष्ट करती हैं दशामाता, जानिए पीपल की पूजा के लाभ
दशामाता हैं मां लक्ष्मी का स्वरूप
घर-परिवार के ग्रहों के अनिष्ट को दूर करने में सहायक
जानिए पूजा की विधि व कथा
दशामाता को मां लक्ष्मी का स्वरूप माना जाता है । दशामाता का व्रत घर-परिवार के ग्रहों की अनिष्ट दशा और परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के लिए किया जाता है। इस साल ये व्रत व पूजा 24 मार्च को की जाएगी। परंपरागत रूप से दशामाता का व्रत चैत्र मास में कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को किया जाता है। आमतौर यह व्रत नारियां करती हैं। स्नानादि से निवृत्त होकर सौभाग्यवती सपुत्रा स्त्रियां कच्चे सूत के धागे गांठ लगाकर पीपल को अर्पित करती हैं। धागे का पूजन करती हैं और उसी धागे को गले में माला की तरह बांधती हैं। उसके बाद कथा कहकर व्रत खोलती हैं।
एक समय अलूना (बिना नमक) भोजन करती हैं। ऐसा कहा जाता है कि एक बार यह व्रत प्रारंभ किया तो जीवनपर्यंत करना चाहिए।
मां लक्ष्मी का स्वरूप
दशामाता को मां लक्ष्मी का स्वरूप माना जाता है। दशामाता का व्रत, घर- परिवार के ग्रहों की अनिष्ट दशा और परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के लिए किया जाता है। इस दिन महिलाएं पूजा और व्रत करके परिवार की सुख-समृद्धि की प्रार्थना करती हैं और बाधाओं के नाश की कामना से गले में सूत का गांठ लगा डोरा धारण करती हैं। इस डोरे में 7 गांठ लगाकर संकल्प लेना चाहिए कि किसी का अहित नहीं करेंगे और अपने कर्म में जुटे रहेंगे और कार्य पूर्ण करने के बाद ही रुकेंगे। इस प्रकार संकल्प लेने से धीरे-धीरे बिगड़े काम बनने लगते हैं और बाधाएं नष्ट हो जाती हैं।
स्कंदपुराण के नागरखंड में कहा गया है कि पीपल की जड़ में विष्णु, तने में केशव, शाखाओं में नारायण, पत्तों में भगवान हरि और फल में सब देवताओं से युक्त अच्युत सदा निवास करते हैं। जो इस वृक्ष के मूल की सेवा करते हैं, वे इसके गुणों से युक्त और कामनादायक आश्रय पाते हैं। यह मनुष्यों के हजारों पापों का
संपूर्ण नाश करने वाला है।
अश्वत्थ पूजन का विशेष महत्व
दशामाता व्रत में अश्वत्थ पूजन का विशेष महत्व है। क्योंकि अश्वत्थ में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देवों का वास रहता है। इसलिए दशामाता की पूजा पीपल की छांव में करना शुभ माना गया है। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं कि अश्वत्थ, सर्ववृक्षाणाम् अर्थात समस्त वृक्षों में मैं पीपल हूं। स्वयं भगवान ने उससे अपनी उपमा देकर पीपल के देवत्व और दिव्यत्व को व्यक्त किया है। शास्त्रों में वर्णित है कि.. अश्वत्थः पूजितो यत्र पूजिताः सर्व देवताः ..अर्थात् पीपल की सविधि पूजा-अर्चना करने से देवता स्वयं ही पूजित हो जाते हैं। पीपल का वृक्ष लगाने वाले की वंश परंपरा कभी विनष्ट नहीं होती।
ये है पूजा-विधि
दशामाता का पूजन करने के लिए कलश में जल लें और उसमें थोड़ा सा गुड़, दूध, शहद और गंगा जल मिला लें। किसी पात्र में सूत के ग्यारह तार के धागे रख लें। अश्वत्थ की तीन परिक्रमा करते हुए धागा तने पर लपेट दें। शेष उसी पात्र में रखकर कथा कहें।
क्या है दशामाता की कथा
राजा नल महारानी दमयंती के साथ सुखपूर्वक रहते थे। रानी दमयंती भगवान विष्णु और मां महालक्ष्मी को चंदन लगाकर मौली बांधकर उनसे राज्य की रक्षा और सुख-समृद्धि की प्रार्थना करती थीं। जो चंदन लगी मौली बचती थी, वे उसे अपने गले में धारण कर लेती थीं। एक दिन राजा ने क्रोध में आकर रानी के गले से वह मौली तोड़कर अलग कर दी। क्योंकि वह मां लक्ष्मी और भगवान विष्णु को अर्पित की गई मौली थी। उसके टूटने से राजा का सौभाग्य भी टूट गया और दरिद्रता ने घेर लिया। राजपाट छूट गए।
कहा जाता है कि एक दिन उन्हें स्वप्न में एक वृद्धा स्त्री दिखाई दी, जिसने उन्हें अश्वत्थ पूजन और मौली अर्पित करने को कहा। राजा नल ने रानी सहित क्षमापूर्वक अश्वत्थ पूजन किया। चंदन लगी मौली अर्पित करके व्रत किया। धीरे- धीरे उनके दिन बदल गए और उनका राजपाट फिर से प्राप्त हो गया।