जितिया को कहते हैं जीवित्पुत्रिका व्रत, जानिए इसकी 3 पौराणिक कथाएं
आश्विन माह के कृष्ण पक्ष का खास है व्रत
अष्टमी तिथि को रखा जाता है व्रत
उत्तर और पूर्वी भारत के कई राज्यों में है इसकी मान्यता
जानें इस व्रत से जुड़ी 3 कथाएं
हमारे देश में हर साल आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ आदि कुछ इलाकों के महिलाएं दिनभर निर्जला उपवास के साथ इस व्रत को रखती हैं। अत्यंत लोकप्रिय इस व्रत को अलग अलग नामों से संबोधित करते हैं। कहीं 'जितिया' तो कहीं 'जिउतिया' और कुछ जगहों पर 'जीवित्पुत्रिका' व्रत का नाम देकर पूजा की जाती है।
महिलाओं के द्वारा इस कठिन व्रत के अवसर पर भगवान जीमुतबहन, माता पार्वती और शिव जी तथा श्रीकृष्ण जी को पारम्परिक तौर पर पूजार्चना किया जाता है। बिहारी औरतें जहां भी रहती हैं, अपनी परम्परा को अहम दर्जा देकर वहां भी इस निर्जला- व्रत को अपनी सन्तानों को बुरे स्थिति से बचाने के लिए तथा उनके लंबी उम्र और बेहतर भविष्य के लिए मनाती हैं। अष्टमी तिथि में शुरुआत यह व्रत का परायण नवमी में ही होती हैं।
ऐसी है चिल्हो सियारो की कथा :
जीवितपुत्रिका व्रत में 'चिल्हो- सियारो' की एक कथा भी सुनी जाती है। संक्षेप में यह है कि-- एक वन में सेमर के पेड़ पर एक चील (चिल्हो) और पास की झाडी में एक सियारिन (सियारो) रहती थी। दोनों सहेली में खूब पटती थी। चिल्हो जो कुछ भी खाने को लेकर आती, उस में से सियारिन के लिए जरूर हिस्सा रखती। ऐसे भी सियारिन भी करती थी। इस तरह दोनों के जीवन आनंद से कट रहे थे। एक् बार वन के पास गांव में औरतें जिउतीया (जितिया) के पूजा की तैयारी कर रही थी। चिल्हो ने उसे बडे ध्यान से देखा और अपनी सखी सियारो को भी बतायी। फिर चिल्हो और सियारो ने तय किया कि-- वे भी यह व्रत को मनाएंगे।।
दोनों मिलकर बड़ी निष्ठा और लगन से दिनभर भूखे- प्यासे रहकर मंगल- कामना करते व्रत में रहीं। मगर रात होते ही सियारिन को भूख- प्यास सताने लगी। जब बर्दाश्त न हुआ, उसने जंगल में जाकर पेट भरकर मांस और हड्डी खाया। चिल्हो ने हड्डी चबाने के कड़- कड़ आवाज सुनी तो पूछा कि-- यह कैसी आवाज है। सियारिन ने कहा-- "बहन, भूख के मारे पेट गुड़गुड़ा रहा है; यह उसी की आवाज है।" मगर चिल्हो को पता चल गया और उसने सियारिन को खूब लताड़ा कि-- "जब व्रत नहीं हो सकता तो संकल्प क्यों लिया था!" सियारीन शर्मा गई, पर व्रत तो भंग हो चुका था; किन्तु चिल्हो ने रात भर भूखे- प्यासे रहकर ब्रत पूरा की थी।
अगले जन्म में दोनों मनुष्य रूप में राजकुमारी बनकर सगी बहनें हुईं। बड़ी बहन सियारिन की शादी एक राजकुमार से हुई। छोटी बहन चिल्हो की शादी उसी राज्य के मंत्रीपुत्र से हुई। बाद में दोनों कुमार राजा और मंत्री बने।सियारिन राानी के जो भी बच्चे होते वे मर जाते, जबकि चिल्हो के बच्चे स्वस्थ और हट्टे- कट्टे रहते। इससे सियारिन को जलन हुई। उसने मौका देखकर चिल्हो की बच्चों के सर कटवाकर डब्बे में बंद करा दिया; पर वह शीश मिठाई बन गयी और बच्चों का बाल तक बांका न हुआ। बार- बार उस सियारिन ने अपनी बहन के बच्चों और उसके पति को मारने का प्रयास भी किया; पर सफल न हुई। आखिरकार दैवयोग से उसे अपनी गलती का आभास हुआ। उसने क्षमा मांगी और बहन के बताने पर जीवित- पुत्रिका व्रत, विधि- विधान से किया, तो उसके पुत्र भी जीवित रहे।
जीमूतबाहन कथा :
गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था। वे बडे उदार और परोपकारी थे। उनके पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय जीमूतबाहन को राजसिंहासन पर बैठाया; किन्तु उनका मन राज- पाट में नहीं लगता था। इसलिए वह राज्य का भार अपने भाइयों पर छोडकर, बन में चलागया और वंहा पिता जी की सेवा करने लगा। वन में ही जीमूतवाहन को मलयवती नामक राजकन्या से भेंट हुई और दोनों में प्रेम हो गया।।
एक दिन वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन काफी आगे चले गए। एक जगह एक वृद्धा को विलाप करते हुए देखकर कारण पूछा तो, वृद्धा ने रोते हुए बताया-- "मैं नागवंश की स्त्री हूं। मेरे एक ही पुत्र को पक्षीराज गरुड़ के कोप से मुक्ति दिलाने के लिए नागों ने यह व्यवस्था की है। हमारे समूह गरूड को प्रतिदिन खाने के लिए एक युवा नाग सौंपते हैं। आज मेरे पुत्र शंखचूड की बलि का दिन है। थोड़ी देर बाद ही मैं पुत्रविहीन हो जाउंगी। एक स्त्री के लिए इस से बड़ा दुख क्या होगा कि उसके जीते जी उसका पुत्र न रहे।।"
जीमूतवाहन को यह सुनकर बड़ा दुख हुआ। उन्होंने उस वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा-- "डरो मत, मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा। आज उसके स्थान पर मैं ही अपने आपको लाल कपड़े में ढंककर वध्य- शिला पर लेटूंगा, ताकि गरुड़ मुझे खा जाए।" इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड के हाथ से लाल कपड़ा ले लिया और वे उसे लपेटकर वध्य- शिला पर लेट गया। नियत समय पर गरुड़ बड़े वेग से आकर।।
लाल कपड़े में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड़ के शिखर पर जाकर बैठ गया। फिर गरूड़ ने अपनी तीक्ष्ण- कठोर चोंक का प्रहार किया और जीमूतवाहन के शरीर से मांस का बड़ा हिस्सा नोच लिया। इसकी पीड़ा से जीमूतवाहन की आंखों से आंसू बह निकले और वह दर्द से कराहने लगे। अपने पंजे में जकड़े प्राणी की आंखों में से आंसू और मुंह से कराह सुनकर गरुड़ बडे आश्चर्य में पड़ गया। उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा और सारा किस्सा सुनकर, ऐसी दयाशील- हिम्मतवाले की बलिदान पर बहुत प्रभावित हुआ।
उन्हें स्वयं पर पछतावा होने लगा। वह सोचने लगे कि एक यह मनुष्य है, जो दूसरे के पुत्र की रक्षा के लिए स्वयं की बलि दे रहा है; और एक मैं हूं जो देवों के संरक्षण में हूं किंतू दूसरों की संतान की बलि ले रहा हूं। उन्होंने जीमूतवाहन को मुक्त कर कहा-- "हे उत्तम मनुष्य, मैं तुम्हारी भावना और त्याग से बहुत प्रसन्न हूं। मैंने तुम्हारे शरीर पर जो घाव किए हैं, उसे ठीक कर देता हूं। तुम खुद के लिए मुझ से कोई भी वरदान मांग लो।"
जीमूतवाहन ने कहा-- "हे पक्षीराज, आप तो सर्वसमर्थ हैं। यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न होकर वरदान देना चाहते हैं, तो पहले आप सर्पों को अपना आहार बनाना छोड़ दें और आपने अब तक जितने भी प्राण लिए हैं, उन्हें जीवन प्रदान करें।"
गरुड़ ने सब को जीवनदान दे दिया और नागों की बलि न लेने का वचन भी दिया। इस प्रकार जीमूतवाहन के साहस से नाग- जाति की रक्षा हुई। गरूड़ ने कहा-- "जो स्त्री तुम्हारे इस बलिदान की कथा सुनेगी और विधिपूर्वक व्रत का पालन करेगी, उसकी संतान मृत्यु के मुख से भी निकल आएगी।" तब से ही पुत्र के सुरक्षा हेतु जीमूतवाहन से जुड़े यह व्रत की सुरुआत हुई। यह कथा शिवजी ने माता पार्वती को सुनाई थी।
भगवान श्री कृष्ण कथा :
यह कथा महाभारत काल से जुड़ी हुई हैं। अपने पिता की मृत्यु के लिए अश्व्थामा के अन्दर बदले की आग तीव्र थी, जिस कारण से उसने शिविर में घुस कर पांडवों के सोते हुए पांच पुत्रों को पांडव समझकर मार डाला था। ऐसे द्रोपदी की पांच पुत्रों मर जाने से अर्जुन ने अश्वथामा को बंदी बना लिया। इसके साथ उसकी दिव्य मणि छीन ली, जिसके फलस्वरूप अश्व्थामा ने उत्तरा की अजन्मी संतान को गर्भ में मारने के लिए अनिर्वाण ब्रह्मास्त्र का उपयोग किया।
उत्तरा की गर्भ में उस संतान को रक्षा करना जरूरी था, क्योंकि वही सन्तान ही पांडव- वंश की एकमात्र उत्तराधिकारी था। इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल उत्तरा की अजन्मी संतान को देकर, 'सुपरिक्षित' कर उसको गर्भ में ही पुनः जीवित किया। गर्भ में मरकर जीवित होने के कारण 'जीवित्पुत्रिका' परिचय से आगे जाकर राजा परीक्षित बनकर राजपाट सम्भाला। तब से इस व्रत को किया जाता हैं।