पितृपक्ष और कौए का खास है कनेक्शन, इन दो पेड़ों की फैलाते हैं श्रृंखला
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  पितृपक्ष का महत्व पूर्ण जानकारी प्राप्त होगी पूर्वजों का पुण्य स्मरण अच्छी और सकारात्मक बातों को लेकर आगे बढ़ना और नकारात्मक बातों को छोड़ना यही विश्लेषण का पितर पक्ष में स्मरण कर सीख लेते हैं।

 

पितृपक्ष 2024 की होने जा रही है शुरुआत

कौआ को हिंदू धर्म में दी जाती है पितरों की संज्ञा

 कौए हमारे पर्यावरण को देते हैं विस्तार

  पितृपक्ष का महत्व पूर्ण जानकारी प्राप्त होगी पूर्वजों का पुण्य स्मरण अच्छी और सकारात्मक बातों को लेकर आगे बढ़ना और नकारात्मक बातों को छोड़ना यही विश्लेषण का पितर पक्ष में स्मरण कर सीख लेते हैं।


हिंदू धर्म की एक विशेषता है कि यहां पर मनाये जाने वाले सभी धार्मिक पर्वों के पीछे वैज्ञानिक कारण व पर्यावरण संतुलन अवश्य होता है। पितृपक्ष मनाने का वैज्ञानिक कारण हिंदू धर्म में सभी त्योहारों की भांति पितृपक्ष का एक विशेष महत्व है। सोलह दिनों तक चलने वाले पितृ पक्ष में हम अपने दिवंगत पितरों के सम्मान व तारण हेतु तर्पण, पिंडदान व श्राद्ध कर्म करते हैं।

आपने कम ही सुना होगा कि कोई पीपल, बरगद के पेड़ लगाए गए या कभी किसी को उनका बीज बोते हुए देखा गया हो या कोई ये बोले कि मैने पीपल और बरगद के बीज खरीदे, क्योंकि बरगद और पीपल की कलम जितनी चाहे रोपने का प्रयत्न करें.. परंतु नहीं लगेगी। क्यों सोचिए ! क्योंकि प्रकृति ने इन दोनों उपयोगी वृक्षों को लगाने के लिए अलग ही संरचना की है।

इन दोनों वृक्षों के फलों को कौवे ( कौआ को हिंदू धर्म में पितरों की संज्ञा दी गई है) खाते हैं और उनके पेट में ही बीज का प्रसंस्करण होता है और तब बीज उगने की स्थिती में आते है….तत्पश्चात् कौवे जहां-जहां बीट करते हैं, वहां-वहां पर दोनों वृक्ष उगते हैं।

पीपल जगत का एकमात्र ऐसा वृक्ष है जो दिन-रात ऑक्सीजन छोड़ता है और बरगद तो औषधीय गुणों की खान है। इसलिए दोनों वृक्षों को उगाने में कौवे का विशेष योगदान होता है क्योंकि मादा कौआ भाद्रपद माह में अंडे देता है और नवजात बच्चों का जन्म होता है इस नयी पीढ़ी के बहुपयोगी पक्षी को पौष्टिक और भरपूर आहार मिलना अति आवश्यक है इसलिए हमारे वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों ने कौवों के नवजात बच्चों के लिए हर छत पर श्राद्ध के रूप मे पौष्टिक आहार विशेषकर दूध व चावल से बनी खीर व जल का प्रबन्ध करना प्रारंभ किया, जिससे कि कौवों के नवजात बच्चों का पालन पोषण हो और और प्रकृति का संरक्षण होता रहे। और हम सभी अपने श्रेष्ठ पूर्वजों को उनके पुण्य कर्मों को स्मरण कर उन्हें सम्मान देते रहें।

श्राद्ध पक्ष पितरों के प्रति श्रद्धा के साथ ही जीवन में गौ सेवा का भी बोध कराता है। शास्त्रों में गौ में सभी देवताओं का वास माना गया है। इसलिए श्राद्ध के बाद उसे गौ ग्रास दिया जाता है। गाय को बचा कर ही हम देश को बचा सकते है| जिसने भी गौमाता को बचाया समझ लीजिये उसने राष्ट्रहित में कार्य किया है| 

मछली बोर्ड, ऊंट बोर्ड व बकरी बोर्ड है लेकिन गौ माता के लिए कूछ प्रांतो में बोर्ड की व्यवस्था बनी है और अधिक बनाने की आवश्यकता है,गाय के सही संरक्षण से ही भारत पुनः विश्वगुरु बन सकता है।

प्रकृति के 99% कीट प्रणाली के लिए लाभदायक हैं। गौमूत्र या खमीर हुए छाछ से बने कीटनाशक इन सहायक कीटों को प्रभावित नहीं करते। एक गाय का गोबर 7 एकड़ भूमि को खाद और मूत्र 100 एकड़ भूमि की फसल को कीटों से बचा सकता है। केवल 40 करोड़ गौवंश के गोबर व मूत्र से भारत में 84 लाख एकड़ भूमि को उपजाऊ बनाया जा सकता है। ज्योतिषाचार्यों के अनुसार पितृ पक्ष के दौरान पृथ्वी सूर्यमंडल के निकट रहती है।

गया जी में पिंडदान करने से पितरों को शक्ति मिलती है और वह शक्ति पितर को परलोक पहुंचाने में मदद करती है. पिंडदान व श्राद्ध कर्म करने के लिए देशभर में 55 स्थानों को महत्वपूर्ण माना गया है, लेकिन उनमें बिहार का गया तीर्थ सर्वोपरि है.

1 -ब्रह्मा जी ने गयासुर को वरदान दिया था, जो भी लोग गया में पितृपक्ष के अवधि में इस स्थान पर अपने पितर को पिंडदान करेगा उनको मोक्ष मिलेगा।
2 - श्रीराम जी के वन जाने के बाद दशरथ जी का मृत्यु हो गयी थी. इस दौरान सीता जी ने गया में ही दशरथ जी की प्रेत आत्मा को पिंड दिया था। उस समय से यह स्थान को पिंडदान करने तथा तर्पण करने से दशरथ जी ने माता सीता का दिया हुआ पिंडदान स्वीकार किया था।
3- गया में पुत्र को जाने तथा फल्गु नदी में स्पर्श करने से पितर का तर्पण होता है।

4 - गया क्षेत्र में तिल के साथ समी पत्र के प्रमाण पिंड देने से पितर का अक्षयलोक को प्राप्त होता है. यहां पर पिंडदान करने से ब्रह्महत्या सुरापान इत्यादि घोर पाप से मुक्त होता है।
5- गया में पिंडदान करने से कोटि तीर्थ तथा अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। यहां पर श्राद्ध करने वाले को कोई काल में पिंड दान कर सकते है. साथ ही यहां ब्राह्मणों को भोजन करने से पितर की तृप्ति होती है।

 एक ब्राह्मण को भोजन कराने से हमारे पूर्वजों का पेट भर सकता है? न जाने इस तरह के कितने ही सवाल लोगों के मन में उठते होंगे। वैसे इन प्रश्नों का सीधे-सीधे उत्तर देना सम्भव भी नहीं है, क्योंकि वैज्ञानिक मापदण्डों को इस सृष्टि की प्रत्येक विषयवस्तु पर लागू नहीं किया जा सकता। दुनिया में ऐसी कई बातें हैं, जिनका कोई प्रमाण न मिलते हुए भी उन पर विश्वास करना पड़ता है।

6- गया में पिंडदान करने के पहले मुंडन कराने से बैकुंठ को जाते है, साथ ही काम, क्रोध, मोक्ष को प्राप्ति होती है. श्राद्ध संस्कार को ही लीजिए। श्राद्ध सूक्ष्म शरीरों के लिए वही काम करते हैं, जो जन्म के पूर्व और जन्म के समय के संस्कार स्थूल शरीर के लिए करते हैं। यहाँ से दूसरे लोक में जाने और दूसरा शरीर प्राप्त करने में जीवात्मा की सहायता करके मनुष्य अपना कर्तव्य पूरा कर देता है। इसलिए इस क्रिया को श्राद्ध कहते हैं, जो श्रृद्धा से बना है। श्राद्ध की क्रियाएँ दो भागों में बँटी हुई हैं। पहला प्रेत क्रिया और दूसरा पितृ क्रिया। ऐसा माना जाता है कि मरा हुआ व्यक्ति एक वर्ष में पितृ लोक पहुँचता है। अत: सपिंडीकरण का समय एक वर्ष के अन्त में होना चाहिए। परन्तु इतने दिनों तक अब लोग प्रतिक्षा नहीं कर पाते हैं। इस स्थिति में सपिंडीकरण की अवधि छह महीने से अब 12 दिन की हो गई है।

7-गयाजी में उपस्थित फल्गू नदी, तुलसी, कौआ, गाय, वटवृक्ष और ब्राह्मण उनके द्वारा किए गए श्राद्धकर्म की गवाही देते है।
8- गया जी में माता सीता ने तर्पण किया था। गया में पिंडदान करने से आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति होती है. इसलिए इस स्थान को मोक्ष स्थली भी कहा जाता है।
9- गया में भगवान विष्णु स्वयं पितृदेव के रूप में निवास करते हैं। गया में श्राद्ध कर्म और तर्पण विधि करने से कुछ शेष नहीं रह जाता और व्यक्ति पितृऋण से मुक्त हो जाता है।
10- पितृपक्ष में जो अपने पितर को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियां प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है।

सभी संस्कारों विवाह को छोड़कर श्राद्ध ही ऐसा धार्मिक कृत्य है, जिसे लोग पर्याप्त धार्मिक उत्साह से करते हैं। विवाह में बहुत से लोग कुछ विधियों को छोड़ भी देते हैं, परन्तु श्राद्ध कर्म में नियमों की अनदेखी नहीं की जाती है। क्योंकि श्राद्ध का मुख्य उद्देश्य परलोक की यात्रा की सुविधा करना है।