रोजगार की गारंटी नहीं कमीशन की गारंटी है मनरेगा योजना, बेइमानी करना प्रधानों की मजबूरी
 

मनरेगा में लूट के लिए भलेही पंचायत प्रतिनिधियों व ग्राम प्रधानों को दोषी ठहराया जाता हो, लेकिन सच्चाई यह है कि कोई भी काम शुरू करने के पहले लिया जाने वाला एडवांस कमीशन और पेमेंट के दौरान दिया जाने वाला कमीशन ही इसकी प्रमुख समस्या है।
 

अधिकारियों को चाहिए एडवांस कमीशन

भुगतान के पहले कई लोगों की गर्म करनी पड़ती है जेब

एमबी व निगरानी करने वाले को भी चाहिए हिस्सा

तो कैसे इमानदारी से काम करेगा ग्राम प्रधान  
 

चंदौली जिले में मनरेगा में लूट के लिए भलेही पंचायत प्रतिनिधियों व ग्राम प्रधानों को दोषी ठहराया जाता हो, लेकिन सच्चाई यह है कि कोई भी काम शुरू करने के पहले लिया जाने वाला एडवांस कमीशन और पेमेंट के दौरान दिया जाने वाला कमीशन ही इसकी प्रमुख समस्या है। मजदूर नेता अजय राय ने कहा कि मजदूरों को रोजगार की गारंटी देने वाली योजना अधिकारियों को कमीशन देने की गारंटी वाली स्कीम बन गयी है।


पहले ये आदत गांव में बिना काम कराए लाखों के भुगतान कराने के लिए डाली गयी थी, जिसको अब अधिकारियों व मनरेगा से जुड़े कमीशनखोरों ने सबके लिए आम कर दिया है। जिसका खामियाजा ऐसे प्रधानों को भुगतना पड़ता है जो पहले पैसा नहीं दे सकते या आर्थिक रूप से कमजोर हैं। 


अजय राय ने बताया कि हम लोगों के देहात में एक कहावत हैं ज्यों - ज्यों दवा की गयी त्यों-त्यों मर्ज बढ़ता गया.. उसी तर्ज पर मनरेगा कानून को लागू करने में जितने कड़े नियम बनाए गए उतना ही भ्रष्टाचार और फर्जी भुगतान कराने का खेल खेला जाने लगा। किसी चीज पर रोक तो नहीं लगा सका लेकिन विभागीय कमीशन को जरूर बढ़ा दिया गया, जबकि मनरेगा कानून ग्रामीण इलाकों के मजदूरों को काम की गारंटी देने के लिए लाया गया था, अब वह अधिकारियों के कमीशन की गारंटी बन गया है। 


मनरेगा योजना गांव में रोजगार उपलब्ध कराने के लिए कांग्रेस के शासन में लायी गयी थी। यह मजदूरों के लिए काम की मांग आधारित कानून था। इसलिए उनकी जांब कार्ड भी बना था, जिसमें काम के दिन अंकित करना जरूरी था और हर हाल में पंद्रह दिन में मजदूरी भुगतान करना था। लेकिन धीरे-धीरे जाब कार्ड की अहमियत कम कर दिया गया। मनरेगा कानून के तहत रोजगार उपलब्ध कराने की महत्ता तब समझ में आयी जब शहरों से मजदूर कोरोना काल में पलायन कर रहे थे। तब इसी मनरेगा ने गांव में काम देकर रोजगार उपलब्ध कराया, जबकि मोदी जी इस योजना की अहमियत को लगातार नकारते रहे उसी का परिणाम हैं मनरेगा कि केन्द्रीय बजट लगातार कम करते जा रहे हैं। 


एमबी के प्राविधान से बढ़ा कमीशन


मनरेगा कानून में काम का एमबी का कोई प्रावधान नहीं था, क्योंकि यह रोजगार देने की योजना थी,  लेकिन इसे जोड़ कर कमीशन को बढ़ा दिया गया और शरीर से कमजोर व महिलाओं के लिए रोजगार उपलब्ध कराने में दिक्कत होने लगी। अब मजदूरों के रोजगार मांगने के आधार पर उनके नाम से मस्टररोल निकलने की जगह जनप्रतिनिधियों के द्वारा दिए नाम पर मस्टररोल निकाला जाने लगा। उसका परिणाम यह हुआ गांव में काम शुरू होने पर मस्टररोल में जिनके नाम थे, उनमें से कई लोग काम पर नहीं आए और जिनके नाम से मस्टररोल नहीं निकाला गया, वे काम पर आ गए और काम करने लगे। 


एडवांस कमीशन भी जिम्मेदार


नाम न उजागर होने पर कई ग्राम सभा के प्रधान ने जो यह बातें बताई उसको जानकर आम लोग हैरान हो जाएंगे। आईपीएफ राज्य कार्य समिति सदस्य अजय राय ने बताया कि ग्राम प्रधान को एक से दो प्रतिशत काम की आईडी लेते समय ब्लाक के संबंधित अधिकारी को एडवांस में देना होता है। इसके बाद पांच प्रतिशत काम की स्वीकृति के समय लिया जाता है। साथ ही जेई, सेक्रेटरी, सोशल आडिट, मनरेगा के जिला स्तरीय अधिकारी से लेकर सभी का कमीशन तय करके रखा गया है, जब सबकी जेब भरती है तो पैसा पास होता है, नहीं तो जांच के नाम पर परेशान किया जाता है।
इसके लिए ग्राम प्रधान या अन्य संबंधित लोग काम न करनेवाले मनरेगा मजदूरों के नाम मस्टर रोल  में भरकर पैसे उनके खाते में डलवाते हैं और वहां से पैसा निकलवा कर अफसरों के मन की मुराद पूरी करते हैं। 


ग्राम प्रधान ने कहा कि साथ ही साथ जिनके खाते में बिना काम किए पैसे जाते हैं, उनके खाते से पैसा निकलवाने के लिए प्रधानजी को न सिर्फ हांथ पांव जोड़ने पड़ते हैं, बल्कि खाते से पैसा निकालने के लिए एक निश्चित राशि का कमीशन भी वह मजदूर लेता है। ऐसे में प्रधान जी गांव में सामाजिक कार्य कराने के नाम पर धीरे-धीरे कमीशनखोरी में गांव में बदनाम होने लगते हैं। तो वह भी कुछ अपने लिए कमाने का जुगाड़ करने लगते हैं, क्योंकि अंत में फंसना तो प्रधान व सेक्रेटरी को ही होता है। 


अजय राय का कहना है कि इस तरह से देखा जाए तो फर्जी भुगतान के लिए कमीशनखोर अधिकारी व सरकारी की नई-नई नीति जिम्मेदार है। फर्जी मजदूरों के नाम से भुगतान कराना ग्राम प्रधानों की मजबूरी है। अन्यथा कमीशन का पैसा कहां से आएगा। 


यह है प्रधानों की मजबूरी

एक और काम जो गुणा-गणित के लिए प्रधानों को मजबूर करता है कि जब 60  प्रतिशत कच्चे काम काम का रेसियो पूरा करेंगे तब  40 फीसदी पक्का काम कर पाएंगे। उसमें भी लेबर, मिस्त्री, ईंट, सीमेंट,  छड़ का रेट इतना कम होता है, कि उस दर पर बाजार में सामान मिल ही नहीं सकता है। ऐसे में बेइमानी व दोयम दर्जे का सामान लगाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है।


इतना सब कुछ होने के बाद वह भी पेमेंट कब होगी वह भी गारंटी नहीं हैं। उसी का परिणाम है कि मनरेगा गरीबों को रोजगार देने की गारंटी देने के बजाय अधिकारियों को कमीशन देने की गारंटी वाली योजना बन गयी है। इसीलिए कमजोर व आर्थिक रूप से परेशान प्रधानों को अपने गांव में मनरेगा का काम कराने के लिए एड़ियां रगड़नी पड़ रही हैं।