पर्यटन बढ़ाना है तो चंद्रकांता के किले को भी बचाना है, वीआईपी के साथ-साथ आम लोगों के लिए खोलें
 

अय्यारों की साजिशों, तिलस्मी अजूबों और अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का गवाह रहा नौगढ़ का किला अब मिट्टी में दफन होने की ओर बढ़ रहा है और उसके दफन होने के साथ ही राजकुमारी चंद्रकांता की अमर प्रेम कहानी और उसका रहस्य भी खत्म हो जाएगा।
 

चंद्रकांता के किला बन चुका है वन विभाग का गेस्ट हाउस

चंद्रकांता की अमर प्रेम कहानी की यादगार निशानी

देवकी नंदन खत्री ने कराया था 'चंद्रकांता संतति' उपन्यास के जरिए रूबरू

इसको पर्यटन स्थल बनाने की मांग

चंदौली जिले में अब पर्यटन को बढ़ाने की चर्चा हो रही है, लेकिन कई ऐतिहासिक चीजें आज भी उपेक्षित हैं। वैसे अगर देखा जाए तो 27 सितंबर का दिन पर्यटन दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन लोगों को दूर दराज और अनोखे जगह पर घूमने फिरने तथा उसे जानने की प्रेरणा दी जाती है।

 हमारे चंदौली जिले में भी कई सारे टूरिस्ट स्पॉट ऐसे हैं, जिसको अगर कायदे से विकसित किया जाए तो चंदौली जिले की आय का बेहतर स्रोत हो सकते हैं, लेकिन जिला प्रशासन उस जगह के बारे में उस तरीके से ध्यान नहीं दे पता है, जितना ध्यान दिया जाना चाहिए और ना ही इन जगहों का प्रचार प्रसार उतने तरीके से करता है, जिससे अधिक से अधिक पर्यटक यहां आकर्षित हों।

कुछ ऐसा ही हल चंदौली जिले में चंद्रकांता की अमर प्रेम कहानी और उससे जुड़े किले का है। यह किला धीरे-धीरे खंडहर में तब्दील होता जा रहा है। विजयगढ़ की राजकुमारी चंद्रकांता और नौगढ़ के राजकुमार वीरेंद्र सिंह की अमर प्रेम कहानी का प्रतीक यह किला चंद्रकांता से जुड़ी कई कहानियों को लेकर अक्सर चर्चा का विषय बना रहता है। इस किले में वन विभाग का गेस्ट हाउस बना दिया गया है, लेकिन वन विभाग इसका रखरखाव उसे तरीके से नहीं कर पा रहा है, जितना उसे करना चाहिए। इसीलिए पर्यटन की एक और निशानी धीरे-धीरे खत्म होने की कगार पर है।


अय्यारों की साजिशों, तिलस्मी अजूबों और अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का गवाह रहा नौगढ़ का किला अब मिट्टी में दफन होने की ओर बढ़ रहा है और उसके दफन होने के साथ ही राजकुमारी चंद्रकांता की अमर प्रेम कहानी और उसका रहस्य भी खत्म हो जाएगा। कभी हाथी, घोड़े और सैनिकों से गुलजार रहने वाला यह किला आज समय की मार से उजाड़ पड़ा हुआ है। किले की सुंदर प्राचीर और अद्भुत कलाकृतियां धरती में समाने लगी हैं।  अब केवल छत ही बची है, जिस पर वन विभाग ने गेस्ट हाउस बना दिया है।

विजयगढ़ की राजकुमारी चंद्रकांता और नौगढ़ के राजकुमार वीरेंद्र की प्रेम कहानी आज भी वनांचल के लोगों के जुबान पर है लेकिन वो इस कथा के स्मारक तक नहीं पहुंच सकते हैं। अगर सरकार पहले कर तो यह किला पर्यटन का बड़ा केंद्र बन सकता है। गेरुवतवा पर्वत के दक्षिण-पूर्व में स्थित नौगढ़ किले के उत्तर-पूर्वी भाग में कर्मनाशा नदी बहती है। किला भट्टियों के अवशेषों के साथ-साथ धातु और खनिज कचरे से भरा है। इसे चंद्रकांता कोठी के नाम भी जाना जाता है।

नौगढ़ किले में आज भी वह सुरंग साफ देखी जा सकती है जो लोगों के अनुसार विजयगढ़ जाती थी। विजयगढ़ की राजकुमारी चंद्रकांता और नौगढ़ के राजकुमार वीरेंद्र सिंह की अमर प्रेम कहानी का गवाह यह किला चंद्रकांता से जुड़ी कई किस्से व कहानियों के लिए प्रसिद्ध है।

चंद्रकांता तत्कालीन मिर्जापुर (अब सोनभद्र) के विजयगढ़ के महाराजा जय सिंह और रानी रत्नगर्भा की एकलौती पुत्री थीं। जबकि राजकुमार वीरेंद्र सिंह तत्कालीन वाराणसी जनपद (अब चंदौली) के नौगढ़ राज्य के अधिपति सुरेंद्र सिंह के पुत्र थे। दोनों की प्रेम कहानी के बीच तमाम अवरोध थे, लेकिन दोनों के प्रेम को परवान चढ़ने से कोई रोक नहीं सका।

विजयगढ़ के महराजा जय सिंह अपने वीरेंद्र सिंह को अपने पुत्र शक्ति सिंह का हत्यारा मानते थे। इसको लेकर ही कई युद्ध हुए, चंद्रकांता और वीरेंद्र सिंह का मिलन हुआ या नहीं यह कोई नहीं जानता। आज नौगढ़ का ऐतिहासिक किला मिट्टी में दफन हो रहा है। वन विभाग ने इसके छत पर गेस्ट हाउस बनाकर इसका नाम चंद्रकांता वन विश्राम गृह रखा है। जहां वीआईपी आकर विश्राम करते हैं, आम आदमी के लिए यह बंद रहता है।

साहित्यकारो का कहना है कि चंद्रकांता की कहानी लोग बड़ी दिलचस्पी से सुनते हैं। सरकार लगातार ऐसे ऐतिहासिक स्थलों को विकसित कर पर्यटन को बढ़ावा दे रही है। पर नौगढ़ के किले पर किसी की नजर नहीं है, अगर इस किले को भी पर्यटकों के लिए खोल दिया जाए तो पर्यटन के साथ ही रोजगार बढ़ेगा।  

वन क्षेत्राधिकारी (नौगढ़) पीके सिंह ने बताया कि महराजा बनारस स्टेट की यह आखिरी सीमा थी। जहां राजपरिवार आखेट के लिए आया करता था। इसके बाद महराजा ने ही इसे वन विभाग को संरक्षण के लिए सौंपा था। जर्जर किले को संरक्षित करने के लिए ही उसकी छत पर गेस्ट हाउस बनाया गया है। किला नीचे दब चुका है लेकिन इसे बाहर से देखने के लिए भी काफी लोग आते हैं।

देश के वरिष्ठ साहित्यकार देवकीनंदन खत्री ने चंद्रकांता की जनकथा को उपन्यास में इस तरह बुना कि उसकी लोकप्रियता शिखर पर पहुंच गई। उस जमाने में अधिकतर लोग उर्दू भाषा-भाषी ही थे। पाठकों ने इस उपन्यास को पढ़ने के लिए हिंदी सीखी। इसी लोकप्रियता के चलते चंद्रकांत संतति की रचना की। इन उपन्यासों को पढ़ते वक्त लोग खाना-पीना भी भूल जाते थे। इसका प्रकाशन सन 1888 में वाराणसी के लहरी प्रेस से हुआ था। इसी कहानी पर नीरजा गुलेरी ने टीवी धारावाहिक चंद्रकांता बनाया जो भारतीय टेलीविजन के इतिहास में काफी चर्चित धारावाहिक साबित हुआ था।