मंदिर जाने से होते हैं कई फायदे, इन कारणों से लोग जाते हैं मंदिर
मंदिर का हिन्दू धर्म में खास महत्व
मंदिर जाने के कई अनिवार्य कारण
इसलिए लोग जाते हैं मंदिर
मंदिर' का अर्थ होता है- मन से दूर कोई स्थान। 'मंदिर' का शाब्दिक अर्थ 'घर' है और मंदिर को द्वार भी कहते हैं। जैसे रामद्वारा, गुरुद्वारा आदि। मंदिर को आलय भी कह सकते हैं, जैसे कि शिवालय, जिनालय। लेकिन जब हम कहते हैं कि मन से दूर जो है, वह मंदिर है तो उसके मायने बदल जाते हैं। मंदिर को अंग्रेजी में भी 'मंदिर' ही कहते हैं, लेकिन 'टेम्पल' (Temple) कहना मंदिर के लिए उचित नहीं कहा जाता है। ऐसे लोग मंदिर के विरोधी कहे जाते हैं।
मंदिर में संध्योपासना की जाती है, जिसे संध्यावंदन भी कहते हैं। संध्योपासना के 5 प्रकार हैं...
1. प्रार्थना,
2. ध्यान,
3. कीर्तन,
4. यज्ञ
5. पूजा-आरती।
व्यक्ति की जिसमें जैसी श्रद्धा है वह वैसा करता है। सभी के अलग-अलग समय नियुक्त हैं।
इसलिए जाना चाहिए मंदिर....
पहला कारण:- मंदिर जाना इसलिए जरूरी है कि वहां जाकर आप यह सिद्ध करते हैं कि आप देव शक्तियों में विश्वास रखते हैं तो देव शक्तियां भी आपमें विश्वास रखेंगी। यदि आप नहीं जाते हैं तो आप कैसे व्यक्त करेंगे की आप परमेश्वर या देवताओं की तरफ है? यदि आप देवताओं की ओर देखेंगे तो देवता भी आपकी ओर देखेंगे। यदि नहीं तो नहीं।
दूसरा कारण:- अच्छे मनोभाव से जाने वाले की सभी तरह की समस्याएं प्रतिदिन मंदिर जाने से समाप्त हो जाती है। मंदिर जाते रहने से मन में दृढ़ विश्वास और उम्मीद की ऊर्जा का संचार होता है। विश्वास की शक्ति से ही धन, समृद्धि और पुत्र-पुत्री रत्न की प्राप्ति होती है।
तीसरा कारण:- यदि आपने कोई ऐसा अपराध किया है कि जिसे आप ही जानते हैं तो आपके लिए प्रायश्चित का समय है। आप क्षमा प्रार्थना करके अपने मन को हल्का कर सकते हैं। इससे मन की बैचेनी समाप्त होती है और आप का जीवन फिर से पटरी पर आ जाता है।
चौथा कारण:- मंदिर में शंख और घंटियों की आवाजें वातावरण को शुद्ध कर मन और मस्तिष्क को शांत करती हैं। धूप और दीप से मन और मस्तिष्क के सभी तरह के नकारात्मक भाव हट जाते हैं और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
पांचवां कारण:- मंदिर के वास्तु और वातावरण के कारण वहां सकारात्मक उर्जा ज्यादा होती है। प्राचीन मंदिर ऊर्जा और प्रार्थना के केंद्र थे। धरती के दो छोर हैं- एक उत्तरी ध्रुव और दूसरा दक्षिणी ध्रुव। उत्तर में मुख करके पूजा या प्रार्थना की जाती है इसलिए प्राचीन काल के सभी मंदिरों के द्वार उत्तर में होते थे। हमारे प्राचीन मंदिर वास्तुशास्त्रियों ने ढूंढ-ढूंढकर धरती पर ऊर्जा के सकारात्मक केंद्र ढूंढे और वहां मंदिर बनाए। मंदिर में शिखर होते हैं। शिखर की भीतरी सतह से टकराकर ऊर्जा तरंगें व ध्वनि तरंगें व्यक्ति के ऊपर पड़ती हैं। ये परावर्तित किरण तरंगें मानव शरीर आवृत्ति बनाए रखने में सहायक होती हैं। व्यक्ति का शरीर इस तरह से धीरे-धीरे मंदिर के भीतरी वातावरण से सामंजस्य स्थापित कर लेता है। इस तरह मनुष्य असीम सुख का अनुभव करता है। मंदिर का भव्य होना जरूरी है। भव्यता से ही दिव्यता का अवतरण होता है। मंदिर वास्तु का ध्यान रखना जरूरी है।
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