दीक्षा लेने के पहले रखें इन बातों का ध्यान, दीक्षा से आना चाहिए जीवन में बदलाव
दीक्षा देने का प्रचलन वैदिक ऋषियों ने प्रारंभ किया था। प्राचीनकाल में पहले शिष्य और विद्या प्रदान के लिए दीक्षा दी जाती थी। माता पिता अपने बच्चों को जब शिक्षा के लिए भेजते थे, तब भी उनको दीक्षा दी जाती थी।
क्या है दीक्षा
हिन्दू धर्मानुसार दिशाहीन जीवन को दिशा देना ही दीक्षा है। दीक्षा एक शपथ, एक अनुबंध और एक संकल्प है। दीक्षा के बाद व्यक्ति उत्तम आचरण वाला बन जाता है। दूसरा लाभ उसके व्यक्तित्व को लेकर होता है। दीक्षा देने की यह परंपरा जैन धर्म में भी प्राचीनकाल से रही है। सिख धर्म में इसे अमृत संचार कहते हैं। हालांकि दूसरे पंथ में दीक्षा को अपने धर्म में धर्मांतरित करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है।
दीक्षा के प्रकार...
हिन्दू धर्म में अनेक प्रकार से दीक्षा दी जाती है। जैसे, समय दीक्षा, मार्ग दीक्षा, शाम्भवी दीक्षा, चक्र जागरण दीक्षा, विद्या दीक्षा, पूर्णाभिषेक दीक्षा, उपनयन दीक्षा, मंत्र दीक्षा, जिज्ञासु दीक्षा, कर्म संन्यास दीक्षा, पूर्ण संन्यास दीक्षा आदि नामों का उपयोग किया जाता है।
क्यों और कब लेना चाहिए दीक्षा
दीक्षा लेने का मतलब यह है कि अब आप दूसरी तरह का व्यक्ति बनना चाहते हैं। आपके मन में अब वैराग्य उत्पन्न हो चुका है, इसलिए दीक्षा लेना चाहते हैं। अर्थात् अब आप धर्म के मोक्ष मार्ग पर चलना चाहते हैं। अब आप योग साधना करना चाहते हैं। अक्सर लोग वानप्रस्थ काल में दीक्षा लेते हैं। दीक्षा देना और लेना एक बहुत ही पवित्र कार्य है। इसकी गंभीरता को समझना चाहिए।
यदि आपने किसी स्वयंभू बाबा से दीक्षा ले रखी है, जबकि आपका संन्यास या धर्म से कोई नाता नहीं है, बल्कि आप उनके प्रवचन, भजन, भंडारे और चातुर्मास के लिए इकट्ठे हो रहे हैं और उन्हीं का लाभ कर रहे हैं और उनके लाभ में ही आपका लाभ छुपा हुआ है तो आपको समझना चाहिए कि आप किस रास्ते पर हैं। दीक्षा का आपके जीवन पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। आप के अंदर क्या बदलाव दिखा है।
विद्वान, जानकर संत से ही लें दीक्षा ...
वर्तमान दौर में अधिकतर नकली और ढोंगी संतों और कथा वाचकों की फौज खड़ी हो गई है। लोग भी उनको विद्वान मान लेते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। आप हर किसी को अपना गुरु मानकर उससे दीक्षा लेने की गलती न करें। बल्कि उसका ज्ञान, आचरण व व्यवहार जरूर देखें। अक्सर देखा जाता है कि लोग जिससे दीक्षा लेते हैं उसका बड़ा सा फोटो अपने घर में लगाकर उसकी पूजा करने लगते हैं। उसका नाम या फोटो जड़ित लाकेट गले में पहनने लगते हैं। यह धर्म का अपमान और पतन ही माना जाता है।
धर्म के जानकारों का कहना है कि कोई संत चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो लेकिन वह भगवान या देवता नहीं हो सकता है। उसकी आरती करना और उस पर फूल चढ़ाना धर्म का अपमान कहा जाता है। उसकी घर में तस्वीर लगाकर पूजा नहीं करना चाहिए।
स्वयंभू संतों की संख्या तो हजारों हैं उनमें से कुछ तो सचमुच ही संत हैं, बाकी कुछ लोग अपनी दुकानदारी चला रहे हैं। यदि हम हिन्दू संत धारा की बात करें तो इस संत धारा को पूज्य शंकराचार्य, गुरु गोरखनाथ और रामानंद ने फिर से पुनर्गठित किया था। जो व्यक्ति उक्त संत धारा के नियमों अनुसार संत बनता है। वहीं संत कहलाने के लायक है।
हिंदू संत बनना बहुत कठिन है, क्योंकि संत संप्रदाय में दीक्षित होने के लिए कई तरह के ध्यान, तप और योग और विद्या अध्ययन की क्रियाओं से व्यक्ति को गुजरना होता है तब ही उसे शैव या वैष्णव साधु-संत मत में प्रवेश मिलता है।
इस कठिनाई, अकर्मण्यता और व्यापारवाद के चलते ही कई लोग स्वयंभू साधू और संत कुकुरमुत्तों की तरह पैदा हो चले हैं। इन्हीं नकली साधु्ओं के कारण हिंदू समाज लगातार बदनाम और भ्रमित भी होता रहा है। हालांकि इनमें से कुछ सच्चे संत भी होते हैं।
अखाड़ों में सिमटा हिंदू संत समाज पांच भागों में विभाजित है और इस विभाजन का कारण आस्था और साधना पद्धतियां हैं, लेकिन पांचों ही सम्प्रदाय वेद और वेदांत पर एकमत हैं।
यह पांच सम्प्रदाय है..
1. वैष्णव 2. शैव, 3. सूर्य, 4. शाक्त और 5. गाणपत्य।
वैष्णवों के अंतर्गत अनेक उप संप्रदाय है जैसे वल्लभ, रामानंद आदि। शैव के अंतर्गत भी कई उप संप्रदाय हैं जैसे दसनामी, नाथ, शाक्त आदि। शैव संप्रदाय से जगद्गुरु पद पर विराजमान करते समय शंकराचार्य और वैष्णव मत पर विराजमान करते समय रामानंदाचार्य की पदवी दी जाती है। हालांकि उक्त पदवियों से पूर्व अन्य पदवियां प्रचलन में थी।
इसलिए हमेशा सलाह दी जाती है कि आपको हमेशा अपने परंपरा प्राप्त आचार्य व संत जन से ही दीक्षा लेना चाहिए और उसके द्वारा बताए गए नियमों का पालन करना चाहिए।
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