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कबीरदास : शब्द के पार का स्वर भी जानें और समझें, सच्ची जीवन शैली का बन सकता है आधार

काशी की गलियों में किसी जुलाहे के घर पला -बढ़ा यह अजातशत्रु संत, हर जाति, मजहब, रूढ़ि और ग्रंथ के बंधन को तोड़कर खड़ा हो गया - अपनी वाणी की मशाल लेकर। उसका जीवन ही उसकी कविता था, और उसकी कविता ही उसका जीवन।
 

कबीरदास की जयंती

इन दोहों से सीखें कुछ खास बातें

जीवन में पैदा करती हैं एक अलग सोच

वैसे अगर देखा जाए तो कबीरदास यह नाम आते ही एक अकंप ज्योति आँखों के सामने उतरती है, जिसकी लौ में पाखंड के अंधेरे झुलस जाते हैं और हृदय का कोना-कोना उजास से भर उठता है। ऐसा लगता है जैसे कोई अदृश्य करघा हर साँस को प्रेम के धागे में पिरोता है और हर शब्द को अनुभव की पीठी पर कातता है।

काशी की गलियों में किसी जुलाहे के घर पला -बढ़ा यह अजातशत्रु संत, हर जाति, मजहब, रूढ़ि और ग्रंथ के बंधन को तोड़कर खड़ा हो गया - अपनी वाणी की मशाल लेकर। उसका जीवन ही उसकी कविता था, और उसकी कविता ही उसका जीवन। नीमा-नीरू का नूर  यह बुनकर अपने करघे पर सिर्फ सूत नहीं, बल्कि जीवन के ताने-बाने भी बुनता रहा। उसके करघे की खटर-पटर में जब-जब वह शब्द फेंकता, तब-तब भीतर कुछ टूटता और कुछ नया गढ़ता।

कबीर ने वेद-पुराण की पोथियों को उलट-पलट कर देखा नहीं, बल्कि जीवन की पोथी के पन्ने खोलकर सत्य को पढ़ा। उनका विश्वास था कि सच न मंदिर की मीनार में है, न मस्जिद के गुम्बद में - वह तो भीतर है, सांसों के संगीत में, हर दिल की धड़कन में। 

उन्होंने कहा कि--

“मस्जिद ढाए मन्दिर ढाए, ढाए जो कछु होय।
पर मन को न ढायो, जो सब गाँव ढायो॥” 

कबीरदास का कहना था कि सत्य तो मन के भीतर ही है, उसे ही देखना और पहचानना है। उनका राम किसी चौखट का कैदी नहीं, किसी मूर्ति में बंद नहीं। उनका राम निर्गुण था - 

 “राम नाम कै संग बसत है, सकल पाप को खोय।” 

 कबीरदास उसी राम को खोजने चले थे जो प्रेम के ढाई आखर में समाया हो, न कि कर्मकांड की पोथियों में। तुलसी के राम मर्यादा के प्रहरी हैं, तो कबीर के राम मुक्ति के अनहद स्वर हैं। उन्होंने कहा-

“जहाँ खोजा तहाँ नाहीं, जहाँ नाहीं तहाँ पाय।
कहैं कबीर तहाँ पहुँचा, जो हँस हँस कर खाय॥” 

 -राम को वही पाता है जो भीतर उतरकर खोजता है। धर्म के नाम पर दीवारें खड़ी करने वालों को कबीर ने अपनी वाणी से हिला दिया। उन्होंने कहा- 
“कंकर पाथर जोड़ि के मस्जिद लई चिनाय, ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।” 

साथ ही साथ हिंदू की मूर्तिपूजा पर भी चुभता सवाल फेंका - “पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार। ताते तो चाकी भली, पीस खाय संसार
       
उनकी वाणी में साहस था, विद्रोह था, पर सबसे बढ़कर करुणा थी - एक ऐसा प्रेम जो पाखंड को पिघला दे और मानव को मानव से जोड़ दे।
उनकी साखियाँ, सबद, रमैनी और बीजक -जैसे किसी नदी के कगार से लुढ़कते पत्थर हों - कहीं सहज, कहीं कठोर, लेकिन हर जगह अपनी चमक से चौंकाने वाले। 

“माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर। 
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर॥” 

  
एक साधक की पीड़ा भी है और एक संत का सत्य भी। और फिर वही संत एक जगह कहता है- 

“साईं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय॥” 

   इसमें एक गृहस्थ की कोमलता भी है, एक संत की करुणा भी, और एक मानव का सहज विवेक भी। कबीर की बानी जैसे शब्दों की बांसुरी हो - हर सुर में अनुभव की महक और जीवन की धड़कन। वे स्वयं भी कहते हैं कि--

“गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय॥” 

 कबीर को अपने गुरु से ही परमात्मा का अनुभव हुआ। उनके लिए गुरु कोई देहधारी व्यक्ति भर नहीं था, वह अनुभव का द्वार था, चेतना का दीपक था।  कबीर के जीवन का करघा केवल कपड़े नहीं बुनता था, वह समाज के फटे चिथड़ों को भी जोड़ता था। उनके शब्दों ने समाज के कोने-कोने को छुआ - राजा से रंक तक, ब्राह्मण से शूद्र तक, हिंदू से मुसलमान तक। उनकी आवाज़ किसी एक गली, एक मजहब, एक जाति की नहीं थी — वह आवाज़ हर दिल की थी, हर खोज की थी।

आज जब धर्म की राजनीति अपने चरम पर है, जातिवाद के शूल फिर से उग आए हैं, तब कबीर की बानी फिर से हवाओं में तैरती है - 

“जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। 
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥” 

   यही तो वह दीपक है जो हमारे भीतर के अंधकार को मिटा सकता है। कबीर को पढ़ना, उनके शब्दों को जीना है। उन्हें किताबों में बंद करके नहीं, बल्कि अपने भीतर उतारकर महसूस करना है। उनका जीवन हमें सिखाता है कि साधना केवल किसी पहाड़ की गुफा में बैठकर नहीं होती, वह तो हर धड़कन में होती है, हर साँस में होती है। कबीर को जीवन में उतारना यानी साहस, करुणा और प्रेम को अपना लेना है - वही प्रेम जो हर मजहब की दीवार को तोड़कर हर दिल तक पहुँचता है।

  कबीर - एक नाम नहीं, एक अनुभव हैं; शब्द नहीं, अनहद नाद हैं। वे आज भी हमारे भीतर गाते हैं - बस हमें सुनना आ जाए।

- डॉ विनय कुमार वर्मा की कलम से

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