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क्या आप जानते हैं रहस्यमयी 'चूड़ामणि' के बारे में, आखिर क्या थी खासियत

जब श्री राम जी का व्याह माता सीता के साथ सम्पन्न हुआ । सीता जी को व्याह कर श्री राम जी अयोध्या धाम आये सारे रीति- रिवाज सम्पन्न हुए। तीनों माताओं ने मुंह दिखाई की प्रथा निभाई।
 


इसलिए सीता ने हनुमान को दी थी 'चूड़ामणि'

जानिए सीता को कैसे मिली थी 'चूड़ामणि'

क्या थी इसकी सबसे बड़ी खासियत

आज हम रामायण में वर्णित चूडामणि की कथा बता रहे है। इस कथा में आप जानेंगे कि..आखिर ये 'चूड़ामणि' कहाँ से आयी..किसने  सीता जी को सौंपी थी 'चूड़ामणि', क्यों लंका में हनुमानजी को सीता ने दी थी 'चूड़ामणि' और कैसे हुआ था वैष्णो माता का जन्म...।

आपको ये दो चौपाइयां याद होंगी...
मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा।
जैसे रघुनायक मोहि दीन्हा।।
'चूड़ामणि' उतारि तब दयऊ।
हरष समेत पवनसुत लयऊ।।

'चूड़ामणि' कहाँ से आई?

सागर मंथन से चौदह रत्न निकले, उसी समय सागर से दो देवियों का जन्म हुआ –
१– रत्नाकर नन्दिनी
२– महालक्ष्मी
रत्नाकर नन्दिनी ने अपना तन मन श्री हरि ( विष्णु जी ) को देखते ही समर्पित कर दिया ! जब उनसे मिलने के लिए आगे बढीं तो सागर ने अपनी पुत्री को विश्वकर्मा द्वारा निर्मित दिव्य रत्न जटित 'चूड़ामणि' प्रदान की ( जो सुर पूजित मणि से बनी) थी।

इतने में महालक्षमी का प्रादुर्भाव हो गया और लक्षमी जी ने विष्णु जी को देखा और मनही मन वरण कर लिया यह देखकर रत्नाकर नन्दिनी मन ही मन अकुलाकर रह गईं। सब के मन की बात जानने वाले श्रीहरि रत्नाकर नन्दिनी के पास पहुँचे और धीरे से बोले कि मैं तुम्हारा भाव जानता हूँ। पृथ्वी को भार- निवृत करने के लिए जब – जब मैं अवतार ग्रहण करूँगा । तब-तब तुम मेरी संहारिणी शक्ति के रूपमे धरती पे अवतार लोगी। सम्पूर्ण रूप से तुम्हें कलियुग में श्री कल्कि रूप में अंगीकार करूँगा। अभी सतयुग है तुम त्रेता , द्वापर में, त्रिकूट शिखरपर, वैष्णवी नाम से अपने अर्चकों की मनोकामना की पूर्ति करती हुई तपस्या करो।

mysterious Chudamani

तपस्या के लिए विदा होते हुए रत्नाकर नन्दिनी ने अपने केश पास से 'चूड़ामणि' निकाल कर निशानी के तौर पर श्री विष्णु जी को दे दिया। वहीं पर साथ में इन्द्र देव खड़े थे। इन्द्र 'चूड़ामणि' पाने के लिए लालायित हो गये, विष्णु जी ने वो 'चूड़ामणि' इन्द्र देव को दे दिया। इन्द्र देव ने उसे इन्द्राणी के जूड़े में स्थापित कर दिया।

शम्बरासुर नाम का एक असुर हुआ करता था, जिसने स्वर्ग पर चढाई कर दी। इन्द्र और सारे देवता युद्ध में उससे हार के छुप गये। कुछ दिन बाद इन्द्र देव अयोध्या राजा दशरथ के पास पहुँचे सहायता पाने के लिए इन्द्र की ओर से राजा दशरथ कैकेई के साथ शम्बरासुर से युद्ध करने के लिए स्वर्ग आये और युद्ध में शम्बरासुर दशरथ के हाथों मारा गया।

युद्ध जीतने की खुशी में इन्द्र देव तथा इन्द्राणी ने दशरथ तथा कैकेई का भव्य स्वागत किया और उपहार भेंट किये। इन्द्र देव ने दशरथ जी को  स्वर्ग गंगा मन्दाकिनी के दिव्य हंसों के चार पंख प्रदान किये। इन्द्राणी ने कैकेई को वही दिव्य 'चूड़ामणि' भेंट की और वरदान दिया जिस नारी के केशपास में ये 'चूड़ामणि' रहेगी उसका सौभाग्य अक्षत–अक्षय तथा अखंड रहेगा और जिस राज्य में वो नारी रहेगी उस राज्य को कोई भी शत्रु पराजित नहीं कर पायेगा।

उपहार प्राप्त कर राजा दशरथ और कैकेई अयोध्या वापस आ गये। रानी सुमित्रा के अदभुत प्रेम को देख कर कैकेई ने वह 'चूड़ामणि' सुमित्रा को भेंट कर दिया। इस 'चूड़ामणि' की समानता विश्वभर के किसी भी आभूषण से नहीं हो सकती।

जब श्री राम जी का व्याह माता सीता के साथ सम्पन्न हुआ । सीता जी को व्याह कर श्री राम जी अयोध्या धाम आये सारे रीति- रिवाज सम्पन्न हुए। तीनों माताओं ने मुंह दिखाई की प्रथा निभाई।

सर्व प्रथम रानी सुमित्रा ने मुँह दिखाई में सीता जी को वही 'चूड़ामणि' प्रदान कर दी। कैकेई ने सीता जी को मुँह दिखाई में कनक भवन प्रदान किया। अंत में कौशिल्या जी ने सीता जी को मुँह दिखाई में प्रभु श्री राम जी का हाथ सीता जी के हाथ में सौंप दिया। संसार में इससे बडी मुँह दिखाई और क्या होगी। जनक जीने सीता जी का हाथ राम को सौंपा और कौशिल्या जीने राम का हाथ सीता जी को सौंप दिया।

राम की महिमा राम ही जाने हम जैसे तुक्ष दीन हीन अग्यानी व्यक्ति कौशिल्या की सीता राम के प्रति ममता का बखान नही कर सकते।

सीताहरण के पश्चात माता का पता लगाने के लिए जब हनुमान जी लंका पहुँचते हैं हनुमान जी की भेंट अशोक वाटिका में सीता जी से होती है। हनुमान जी ने प्रभु की दी हुई मुद्रिका सीतामाता को देते हैं और कहते हैं –

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा।
जैसे रघुनायक मोहि दीन्हा।।
'चूड़ामणि' उतारि तब दयऊ।
हरष समेत पवन सुत लयऊ।।

सीता जी ने वही 'चूड़ामणि' उतार कर हनुमान जी को दे दिया , यह सोच कर यदि मेरे साथ ये 'चूड़ामणि' रहेगी तो रावण का बिनाश होना सम्भव नहीं है। हनुमान जी लंका से वापस आकर वो 'चूड़ामणि' भगवान श्री राम को दे कर माताजी के वियोग का हाल बताया।

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