निर्जला एकादशी का है अपना महत्व, महबली भीम ने व्रत करके पाया था था खास वरदान
बेहद खास होती है निर्जला एकादशी
महाबली भीम ने किया यह व्रत
नारदजी को मिली निश्छल भक्ति का वरदान
जानिए रोचक पौराणिक कथाएं
सनातन धर्म में एकादशी के दिन सृष्टि के पालनहार भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। साथ ही जीवन में आध्यत्मिक उन्नति और सुख-शांति, समृद्धि की प्राप्ति के लिए व्रत भी किया जाता है। ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष में पड़ने वाली निर्जला एकादशी 18 जून, मंगलवार को है। इस व्रत को 'देवव्रत' भी कहा जाता है क्योंकि सभी देवता, दानव, नाग, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, नवग्रह आदि अपनी रक्षा और श्रीविष्णु की कृपा पाने के लिए एकादशी का व्रत करते हैं।
महाबली भीम ने किया यह व्रत
द्वापर युग में महर्षि व्यासजी ने पांडवों को निर्जला एकादशी के महत्व को समझाते हुए उनको यह व्रत करने की सलाह दी। जब वेदव्यास जी ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाली एकादशी व्रत का संकल्प कराया तो कुंती पुत्र भीम ने पूछा-'हे देव! मेरे उदर में तो वृक नामक अग्नि है,उसे शांत रखने के लिए मुझे दिन में कई बार और बहुत अधिक भोजन करना पड़ता है । तो क्या में अपनी इस भूख के कारण पवित्र एकादशी व्रत से वंचित रह जाऊँगा?''। तब व्यास जी ने कहा-''हे कुन्तीनन्दन! धर्म की यही विशेषता है कि वह सबको धारण ही नहीं करता वरन सबके योग्य साधन व्रत-नियमों की सहज और लचीली व्यवस्था भी करता है। तुम केवल ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की निर्जला एकादशी का व्रत करो।
मात्र इसी के करने से तुम्हें वर्ष की समस्त एकादशियों का फल भी प्राप्त होगा और तुम इस लोक में सुख-यश प्राप्त कर वैकुण्ठ धाम को प्राप्त करोगे''। तभी से वर्ष भर की चौबीस एकादशियों का पुण्य लाभ देने वाली इस श्रेष्ठ निर्जला एकादशी को भीमसेनी एकादशी या पांडव एकादशी नाम दिया गया है। इस दिन जो व्यक्ति स्वयं निर्जल रहकर "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय" का जप करता है वह जन्म जन्मांतर के पापों से मुक्त होकर श्री हरि के धाम जाता है।
नारदजी को मिली निश्छल भक्ति का वरदान
शास्त्रों के अनुसार श्री श्वेतवाराह कल्प के प्रारंभ में देवर्षि नारद की विष्णु भक्ति देखकर ब्रह्मा जी बहुत प्रसन्न हुए। नारद जी ने अपने पिता व सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी से कहा कि हे परमपिता! मुझे कोई ऐसा उपाय बताएं जिससे मैं जगत के पालनकर्ता श्रीविष्णु भगवान के चरण कमलों में स्थान पा सकूं। पुत्र नारद का नारायण प्रेम देखकर ब्रह्मा जी ने श्रीविष्णु की प्रिय निर्जला एकादशी व्रत करने का सुझाव दिया। नारद जी ने प्रसन्नचित्त होकर पूर्ण निष्ठा से एक हजार वर्ष तक निर्जल रहकर यह कठोर व्रत किया। हजार वर्ष तक निर्जल व्रत करने पर उन्हें चारों तरफ नारायण ही नारायण दिखाई देने लगे।
परमेश्वर श्रीनारायण की इस माया से वे भ्रमित हो गए,उन्हें लगा कि कहीं यही तो विष्णु लोक नहीं। तभी उनको भगवान विष्णु के साक्षात दर्शन हुए,मुनि नारद की भक्ति से प्रसन्न होकर विष्णुजी ने उन्हें अपनी निश्छल भक्ति का वरदान देते हुए अपने श्रेष्ठ भक्तों में स्थान दिया और तभी से निर्जल व्रत की शुरुआत हुई।
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