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तो इसलिए सावन में निकाली जाती है कांवड़ यात्रा, ये है इसका महत्व और नियम

जहां सावन के शुरू होते ही शिव पूजा होने लगती है वहीं दूसरी तरफ कांवड़ यात्रा भी शुरू हो जाती है 

 

शिवभक्त अपनी कांवड़ में गंगा जल भरकर, मीलों पैदल चलकर शिव मंदिरों में पहुंचते हैं और शंकरजी को चढ़ाते हैं। 

सावन महीने की शुरुआत होते ही शिवभक्त भोलेनाथ की पूजा में लग जाते हैं। वे महादेव को प्रसन्न करने में किसी तरह की कोई कमी नहीं रखते। भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं, बेलपत्र चढ़ाते हैं साथ ही व्रत-उपवास भी करते हैं जिससे कि भगवान आशुतोष शीघ्र प्रसन्न हों और उन्हें मनचाहा वरदान दे। 

एकतरफ जहां सावन के शुरू होते ही शिव पूजा होने लगती है वहीं दूसरी तरफ कांवड़ यात्रा भी शुरू हो जाती है जिसके तहत शिवभक्त अपनी कांवड़ में गंगा जल भरकर, मीलों पैदल चलकर शिव मंदिरों में पहुंचते हैं और शंकरजी को चढ़ाते हैं। इस साल भी कोरोना महामारी के चलते कई राज्यों में कांवड़ यात्रा पर रोक लगा दी गई है तो बिना कांवड़ यात्रा निकाले आप अपने घर पर भी शिव जी का जलाभिषेक करके उन्हें प्रसन्न कर सकते हैं। घर के आसपास मौजूद किसी शिव मंदिर में भी सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए पूजा की जा सकती है।

वैसे कहने को तो यह कांवड़ यात्रा धार्मिक आयोजन भर है लेकिन इसके सामाजिक सरोकार भी हैं। कांवड़ के माध्यम से जल की यात्रा का यह पर्व सृष्टि रूपी भगवान शिव की आराधना के लिए किया जाता है।

पर यहां सवाल यह उठता है कि आखिर सावन के महीने में ही कांवड़ यात्रा का आयोजन क्यों किया जाता है? कैसे इसकी शुरुआत हुई और आखिर कौन थे पहले कांवड़िये? 

आइये जानते हैं कि कैसे हुई कांवड़ यात्रा की शुरुआत ....

पहले कांवड़िये थे परशुराम 

परशुराम को पहला कांवड़िया माना जाता है। सबसे पहले परशुराम ने ही उत्तर प्रदेश के बागपत के पास स्थित 'पुरा महादेव'  का कांवड़ से गंगाजल लाकर जलाभिषेक किया था। कहते हैं कि परशुराम इस प्रचीन शिवलिंग का जलाभिषेक करने के लिए गढ़मुक्तेश्वर से गंगा जी का जल लाए थे। आज भी इस परंपरा का पालन करते हुए सावन के महीने में गढ़मुक्तेश्वर से जल लाकर लाखों लोग 'पुरा महादेव' का जलाभिषेक करते हैं। 

माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर हरिद्वार लाए थे श्रवण कुमार 

अन्य विद्वानों की मानें तो सर्वप्रथम त्रेतायुग में श्रवण कुमार ने कांवड़ यात्रा की थी। श्रवण कुमार के अंधे माता-पिता ने हरिद्वार में गंगा स्नान की इच्छा व्यक्त की। तो श्रवण कुमार ने अपने माता –पिता को कंधे पर कांवड़ में बिठा कर पैदल यात्रा की और उन्हें गंगा स्नान करवाया। लौटते समय अपने साथ गंगा जल लेकर आए, जिससे उन्होंने भगवान शिव का अभिषेक किया। इसे ही कांवड़ यात्रा की शुरुआत माना जाता है।

श्रीराम ने भी की थी कांवड़ यात्रा 

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान श्री राम पहले कांवड़िया थे। उन्होंने बिहार के सुल्तानगंज से कांवड़ में गंगाजल भरकर, बाबा धाम में शिवलिंग का जलाभिषेक किया था। तभी से ये परंपरा चली आ रही है। 

शिवभक्त रावण ने भी कांवड़ के जल से किया था जलाभिषेक 

पुराणों की अन्य मान्यताओं की मानें तो समुद्र मंथन से निकले विष का पान करने से भगवान शिव नीलकंठ कहलाए लेकिन विष के प्रभाव से शिव जी का गला जलने लगा तब उन्होंने अपने परम भक्त रावण का स्मरण किया। रावण ने कावंड़ से जल लाकर भगवान शिव का अभिषेक किया जिससे शिव जी को विष के प्रभाव से मुक्ति मिली। कुछ विद्वान इस घटना को ही कांवड़ यात्रा की शुरुआत मानते हैं।

कांवड़िये इन नियमों का करते हैं पालन 

कांवड़ यात्रा बेहद कठिन मानी जाती है और जो शिवभक्त इसमें भाग लेते हैं उन्हें कई कठिन नियमों का पालन भी करना होता है। इन नियमों के पालन के बिना कांवड़ यात्रा को अधूरी माना जाता है और उन्हें कई तरह के कष्ट भी भोगने पड़ते हैं।  

- कांवड़ यात्रा बेहद पवित्र होती है जिसके दौरान कांवड़िये को किसी भी तरह का नशा करना वर्जित माना गया है। इसके अलावा मांसाहारी भोजन करने की भी मनाही है।

- कांवड़ यात्रा के दौरान कांवड को जमीन पर नहीं रखना चाहिए। अगर आपको कहीं रुकना हैं तो स्टैंड या पेड़ के ऊंचे स्थल पर ही कांवड़ को रखें। कहते हैं अगर किसी व्यक्ति ने कांवड़ को नीचे रखा तो उसे दोबारा गंगाजल भरकर यात्रा शुरू करनी पड़ती है।

- कांवड़ यात्रा के दौरान पैदल चलने का विधान है। अगर आप कोई मन्नत पूरी होने पर यात्रा कर रहे हैं तो उसी मन्नत के हिसाब से यात्रा करें।

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