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महाकुंभ तीर्थ में स्नान व निवास करने वालों के लिए सलाह, इस स्तोत्र का अवश्य करना चाहिए पाठ

त्रिवेणी के रूप में त्रिगुणात्मिका आद्या महालक्ष्मी ही अवस्थित है। जो अपने उपासकों को पाप ताप शाप से मुक्त कर परमेश्वर सत्यनारायण ( वेणी माधव) से  साक्षात्कार कराती है ।
 

 त्रिशक्तिस्वरूपा श्रीत्रिवेणी स्तोत्र का है खास महत्व

कल्पवास करने वालों के लिए टिप्स

महाकुंभ स्नान करने वालों के लिए सलाह

तीर्थ राज प्रयाग में कल्पवास में अथवा कुंभ पर्व के अवसर पर वहां तीर्थ में स्नान व निवास करते हुए इस स्तोत्र का पाठ अवश्य करना चाहिए। इसके अतिरिक्त विश्व में कहीं भी रहते हुए भगवती त्रिवेणी लक्ष्मी और भगवान माधव नारायण का चिंतन ध्यान करते हुए इस स्तोत्र का पाठ त्रयतापों से मुक्त करता है।

त्रिवेणी स्तोत्र की महिमा
तीर्थराज प्रयाग में जहाँ गङ्गा यमुना सरस्वती मिलती हैं उसे त्रिवेणी कहते हैं । त्रिवेणी का वर्णन वेदों में भी आता है। स्त्रियों का सौभाग्य भी वेणी में ही होता है। चोटी को तीन लट पृथक करके गुथते हैं। पहिले तो वे तीनों पृथक-पृथक दीखती है, किन्त गुथने पर एक छिप जाती है दो ही दिखायी देती हैं। इसी प्रकार गङ्गा, यमुना सरस्वती तीनों मिलने पर सरस्वती गुप्त हो जाती है गङ्गा यमुना की दो धारा ही दिखायी देती हैं।

यह पिण्ड तथा ब्रह्माण्ड त्रित्व पर ही अवलम्बित है। शरीर में भी इडा, पिङ्गला और सुषुम्ना जहाँ मिलती हैं, उसे त्रिवेणी कहते हैं। दोनों भौंहों के बीच में यह स्थान है। जहाँ ये मिलती हैं, उसे युक्त त्रिवेणी कहते हैं, जहाँ से फिर तीनों धारायें पृथक होती हैं उसे मुक्त त्रिवेणी कहते हैं। कलकत्ते के पास गङ्गा यमुना सरस्वती तीनों धारायें फिर पृथक होती है। वह स्थान भी त्रिवेणी के नाम से विख्यात है 'त्रिवेणी' नाम का वहाँ स्टेशन भी है। किन्तु प्राधान्य युक्तत्रिवेणी का ही है। जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड है। इसीलिये ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सत्व, रज, तम इनसे ही सृष्टि होती है। त्रिवेणी में आधिभौतिक, आधिदैविक, और आध्यात्म ये तीनों ही भाव हैं। त्रिवेणीदेवी से ही सृष्टि होती है। त्रिवेणी ही सृष्टि की रक्षा करती हैं और अन्त में त्रिवेणी ही सबका संहार करती है। विश्व की सष्टि, स्थिति, लय त्रिवेणी पर ही अवलम्बित है।

त्रिवेणी के रूप में त्रिगुणात्मिका आद्या महालक्ष्मी ही अवस्थित है। जो अपने उपासकों को पाप ताप शाप से मुक्त कर परमेश्वर सत्यनारायण ( वेणी माधव) से  साक्षात्कार कराती है ।

त्रिवेणी की एक उपासना ही त्रिशक्ति की उपासना है। यही बात इस स्तोत्र में बतायी गयी है। यह 54 श्लोकों का प्राचीन स्तोत्र बहुत ही दिव्य और महान है, इसकी रचना कब हुई और किसने की पता नहीं। किन्तु इसमें वर्णित भाव अतीव दिव्य है और त्रिवेणी के यथार्थ रूप को बतलाते हैं।

हरि ॐ तत्सत्।

श्री गणेशाय नमः।
श्रीवेणीमाधवायनमः।
श्रीत्रिवेणीदेव्यैनमः।।

ॐ नमो नारायणाय वासुदेवाय।
ॐ नमो भगवते त्रिवेणी माधवाय।
ॐ  श्रींं ह्री क्लीं ऐं सौ: त्रितापनाशिनी त्रिभुवन रूपिणी त्रिवेणी लक्ष्म्यै नमः।
ॐ श्रीरुपायै च विद्महे, माधवप्रियायै धीमहि। तन्नो: त्रिवेणी: प्रचोदयात्।।
ॐ महालक्ष्म्यै च विद्महे, मूलप्रकृत्यै धीमहि। तन्नो: भगवती: प्रचोदयात्।।
ॐ आद्यायै च विद्महे, परमेश्वर्यै धीमहि। तन्नो: नारायणी: प्रचोदयात्।।

ॐ काराब्ज निवासमत्त मधुपामुद्यान पीठस्थितां
ॐ कारागण काम कल्पलतिकामोजीस्वनी मौषधीम्।
ॐ कारेश्वर केवल प्रिय सखी मोंकार नाद प्रियाम्
ॐ कार प्रभवां विचित्र विभवां देवीं त्रिवेणी भजे।।१।।

भावार्थ-
जो ॐकार रूपी कमल वाटिका के पीठ पर मस्त भौरों की तरह निवास करती हैं, ॐकार के उपासकों की कामना सिद्ध करने के लिये कल्पवृक्ष के समान हैं, तेजोवर्धक औषधि के तुल्य हैं, ॐकारेश्वर (कृष्ण ) की एकमात्र प्रियसखी हैं, जिन्हें ॐ कार शब्द प्रिय है, ॐ कार से जिनकी उत्पत्ति हुई है और जो विचित्र ऐश्वर्यशालिनी हैं, ऐसे त्रिवेणी देवी की मैं वन्दना करता हूँ।

अद्वैतांमभिवांक्षितार्थ फलदाम ब्याहता मव्ययाम्
अष्टैश्वर्य करामनन्त जयदामब्जस्थितामक्षरीम्।
आब्धि ग्रासनुतामशेष जननी मर्काग्नि कोटिप्रभाम्
अज्ञानान्ध हरामपार करुणां देवीं त्रिवेणी भजे।।२।।

भावार्थ-
जो अद्वैत स्वरूपा, मनोवांछित फलदायिनी, अव्याहत गतिवाली, अविनाशिनी, आठों सिद्धियों को देनेवाली, सदा विजय प्राप्त करानेवाली, कमल पर स्थित अक्षर स्वरूपा हैं, जिनकी स्तुति अगस्तजी किया करते हैं, जो जगजननी हैं करोडों सूर्य एवं अग्नि के समान चमकनेवाली हैं, अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करनेवाली हैं, और जो अपार करुणामयी हैं, ऐसे त्रिवेणी देवी की मैं वन्दना करता हूँ।

आम्नायागम सेविताघि युगलामापीनुत्तुङ्गस्तनीम्
आपोज्योति रसाभिपूर्ण लहरी मानंद संधायिनीम्।
आधारामरुणामनेक कुशलामाकार संशोभिताम्
आदिक्षान्त समस्त वर्ण निलयां देवीं त्रिवेणींभजे।।३।।

भावार्थ-
जिनके दोनों चरणों की सेवा वेद और तन्त्रशास्त्र किया करते हैं, स्तन स्थूल एवं उत्तुङ्ग हैं, जिनका जल निर्मल स्वादिष्ट तथा तरङ्गों से युक्त है, जो आनन्द देनेवाली हैं, सबको धारण करनेवाली हैं, जिनका वर्ण लाल है, जो अनेक कार्यों में कुशल हैं, जिनकी आकृति सुन्दर है, और जो 'अ' से लेकर 'क्ष' तक के सभी अक्षरों के आधार है, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।

इष्टानिष्ट विवर्जिता मिह पर स्वामैक्य सौख्य प्रदां
इच्छासिद्धि विलास वैभव परामिच्छा क्रिया संयुताम्।
इच्छा शक्ति धनुश्शराभि दधतीं मिन्द्रार्चिता मिंदिराम्
इष्टावाप्त वरिष्ठ वाक् प्रकरिणीं देवी त्रिवेणींभजे।।४।।

भावार्थ-
जो अच्छे और बुरे अपने और पराये के भेदभाव से दूर है। तथा सुख प्रदान करानेवाली एकमात्र स्वामिनी है, इच्छा शक्ति विलास-वैभव से सम्पन्न यथेच्छ आचरण करनेवाली हैं, इच्छाशक्ति रूपी धनुष और बाण को धारण करती है, इन्द्र जिनकी पूजा करते हैं, जो धन तथा मनोकामना पूर्ण करती है। जिनकी वाणी बड़ी ही ओजस्विनी है, ऐसे त्रिवेणीदेवी की में वन्दना करता हूँ ॥४॥

ईपत्स्मरे विराजमान वदना मीशान दैवार्चिताम्
ईशित्वादि समस्त सिद्धि सहिता मींकार वर्णातिकाम्।
ईशां काम कलां विशुद्धमनसां विश्वेश्वरीमीश्वरीम्
ईषंत्री सकलार्थ दीपन करीं देवीं त्रिवेणी भजे।।५।।

भावार्थ-
जिनका मुख मन्द मन्द मुस्कान से सुशोभित है, शङ्कर जिनका पूजन करते हैं, जो 'ईशित्व' (सबको वश में रखना) आदि सम्पूर्ण सिद्धियों से युक्त हैं, जिनका स्वरूप इकार अक्षरमय है, जो सबकी स्वामिनी है, काम की कला हैं, पवित्र अन्तःकरण वाली हैं, विश्व की शासिका हैं, ईश्वरी हैं, तथा सकल पदार्थों को प्रकाशित करनेवाली, ऐसे त्रिवेणीदेवी की में वन्दना करता हूँ।

उत्फुल्लारुण पद्मनेत्र युगला मुद्दण्ड दैत्यापहाम्
उद्योतोज्ज्वल तीर्थराज रमणी मुल्लास तेजोवतीम्।
उत्कर्षाभयदान पेशलकरा मुच्छास शक्तिप्रदाम्
म उर्वस्यार्चित पादुकां पर कलां देवीं त्रिवेणींभजे।।६।।

भावार्थ-
प्रस्फुटित लाल कमल के समान जिनके नेत्र हैं, जो उद्दण्ड दैत्यों को नाश करनेवाली हैं, प्रभा से विलसित हैं, तीर्थराज प्रयाग की प्रिया है, उल्लास और तेज से युक्त हैं, उत्कर्ष एवं अभयदान देने में सिद्धहस्त हैं, जीवनशक्ति प्रदान करनेवाली हैं, जिनके खड़ाऊँ की पूजा उर्वशी करती है तथा जो उत्कृष्ट कला स्वरूपा हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।

ऊर्ध्वश्रोत परा सरां त्रिनयना मूर्ध्वस्वरा मूर्ध्वगाम
ऊर्ध्वाश्वास सुषुम्नमार्ग गमना मूर्ध्वेज्वल ज्वालिनीम्।
ऊर्ध्वाधः परिपूर्णधाम लहरी मूर्ध्वप्रभां भास्वराम्
ऊर्ध्वस्थान निवासिनीं शुभ करीं देवीं त्रिवेणींभजे।।७।।

भावार्थ-
जो ऊर्ध्वगामी प्रवाह से युक्त हैं, जिनके तीन नेत्र हैं, जिनका स्वर ऊर्ध्व है, जो ऊर्ध्वगामिनी है, ऊध्र्व-उच्छवास एवं सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग से गमन करनेवाली हैं, ऊपर को उठने वाली भास्वर ज्वाला से दैदीप्यमान है, ऊपर और नीचे अत्यन्त तेज तरङ्गों से व्याप्त है, ऊध्र्व कान्तिवाली है, जाज्वल्यमान हैं, ऊर्ध्व स्थान में निवास करनेवाली है, तथा शुभ करनेवाली हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।

ऋक्सामैरभि वन्दितां ऋषिगणैर्ध्येयां जगत्मोहिनीम्
ऋत्विक श्रोत्रिय यज्ञ सेवित तरां ऋग्दुःख संहारिणीम्।
ऋग् घोरासुर मर्दिनीं ऋतुमती सिंहासनाधीश्वरीम्
ऋकक्षामार्चित् पादपद्म युगलां देवीं त्रिवेणींभजे।।८।।

भावार्थ-
ऋग्वेद और सामवेद जिनकी अभिवन्दना करते हैं, ऋषिवन्द जिनका ध्यान करते हैं, जो जगत को मोह में डाल देती है, ऋत्विक एवं श्रोत्रिय लोग यज्ञ द्वारा जिनकी उपासना करते हैं, जो ऋचाओं द्वारा दुःख का संहार तथा भयङ्कर असुरों का मर्दन करनेवाली हैं, ऋतुमती हैं, सिंहासन की अधीश्वरी हैं, और जिनके चरणारविन्दों की पूजा ऋग्वेद एवं सामवेद किया करते हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।

ऋृत्य कल्पित नासिकां ऋृजुकरां ऋृङ्कारभूषोज्वलाम्
ऋृदिव्यामृत पूर्ण हेम लहरीं ऋृवर्ण सञ्चारिणीम्।।
ऋृकाराक्षर रूपिणी गुरुतरां ऋृदीर्घ सारांगणाम्
ऋृनित्यां ऋृगणां भयापहरिणीं देवीं त्रिवेणींभजे।।९।।

भावार्थ-
जिनकी नासिका ऋ अक्षर के समान है, कल्याण कारिणी हैं, जो ऋकार रूप आभूषण से प्रकाशमान हैं, ऋकार रूप दिव्य एवं अमृतपूर्ण स्वर्ण लहरी के समान हैं, ऋवर्ण के साथ संचरण करनेवाली है, ऋकार अक्षर स्वरूपा है, अतिशय विशाल है, दीर्घ ऋ कार की सार है, ऋ अक्षर में नित्य रूप से अवस्थित है, ऋृ कार ही गण है, भय को दूर करनेवाली है, ऐसे त्रिवेणीदेवी को मैं वन्दना करता हूँ।

लृब्धद्रोह विनाश हेतु चतुरां लृ लॄ कपोलाक्षरां
लॄत्त प्रेत पिशाच लुंठन करां लृ लॄ कला शोभिताम्।।
लृप्तां लृप्त विहीन विद्रुम लतां लोकेषु विख्यातिनीम्
लृ लॄ निर्मित नीलकान्ति चिकुरां देवीं त्रिवेणींभजे।।१०।।

भावार्थ-
जो ईष्या और द्रोह को नष्ट करने में पटु हैं, जिन्हें कपोल से उच्चरित होनेवाले लृ और लॄ अक्षर प्रिय हैं, जिनके हाथ भूत, प्रेत और पिशाच के लूटने में दक्ष हैं, जो लृ और लॄ अक्षरों की कला से सुशोभित हैं, जो जगत् विख्यात हैं, जिनके केश लृ और लॄ अक्षरों की नीलकांति से परिपूर्ण हैं, ऐसे त्रिवेणी देवी की मैं वन्दना करता हूँ।

लॄकारां परम प्रकाश लहरी लॄकार मध्येस्थिताम्
लोभ क्रोध निराकरां सुरुचिरां लावण्य नीलालकाम्।
लीला लब्ध यशस्विनी स्थिरतरां लॄङ्कार नित्यार्चिताम्
लक्षार्क प्रतिम प्रदीप कलिकां देवीं त्रिवेणींभजे।।११।।

भावार्थ-
जो लॄ अक्षर से युक्त हैं, महाप्रकाश की तरङ्ग रूप हैं, लॄ कार के बीच में रहनेवाली हैं, लोभ और क्रोध का निवारण करनेवाली है. अत्यन्त सुंदरी है, घुघराले तथा नीले रङ्ग के बालों से सुशोभित हैं, अपने लीलाओं के द्वारा यश प्राप्त करने वाली हैं, अत्यन्त स्थिर रहनेवाली हैं, लॄ कार से नित्य पूजित होने वाली हैं, तथा लाखों सूर्य के समान देदीप्यमान है, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।

एकप्राभव शालिनीं निज सुखामेकाग्र चित्तप्रदाम्
एकां निश्चल योगिनीमनुपमा मेकाक्षरां शाश्रिताम्।
एकाकार विराजमान तरुणी मेक प्रतापाज्वलाम्
एकाभां नवयावर्काद चरणां देवीं त्रिवेणींभजे।।१२।।

भावार्थ-
जो महा प्रभुता से सम्पन्न हैं, अपने आप आनंदित रहनेवाली हैं, चित्त को एकाग्र करनेवाली हैं, अकेली रहनेवाली हैं, निश्चल होकर योगाभ्यास करनेवाली हैं, जो अनुपम हैं, एकाक्षर के भाग पर आधारित है, एक रूप में सदा युवती है, अद्भुत प्रताप से युक्त हैं, विशिष्ट शोभावाली हैं, चरणों में महावर लगाये हुई हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।

ऐंकारांरुण वह्निचक्र निलया मैरावताधिष्ठिताम्
ऐंकारांकुर दीप्त काश्चनलता मैंकार वर्णात्मिकाम्।
ऐंकाराम्बुधि चन्द्रिका मसुरहा मैंकार पीठस्थिताम्
ऐंकारासन गर्भिता नलशिखां देवीं त्रिवेणींभजे।।१३।

भावार्थ-
अग्नि समूहों को धारण करनेवाली ऐंकार के समान लाल, तथा ऐरावत पर आसीन ऐंकार के अंकुर के समान प्रकाशवती स्वर्णलता है, ऐंकार अक्षर स्वरूपा हैं, ऐंकार रूपी समुद्र में चाँदनी के समान, असुरों को नाश करनेवाली, ऐंकार की पीठ पर विराजमान, ऐंकार रूपी आसन पर स्थित अग्निशिखा है, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।

औन्नत्याम्मभय प्रदान चतुरामौघत्रयाराधिताम्
औद्धत्यामघ शोषणां सुविदुषामोघोध बुद्धिप्रदाम्।
औद्गीतां सकलैः पुराण पुरुषैःर्वैदै पदैस्स क्रमैः
ओंकाराक्षर राजराज्य वशगां देवीं त्रिवेणींभजे।।१४।।

भावार्थ-
जो उन्नति और अभय प्रदान करने में चतुर हैं, गङ्गा, यमुना, सरस्वती जिनकी उपासना करती हैं, जो लोगों की उद्दण्डता और पापों का नाश करती हैं, विद्वानों को बुद्धि एवं आनन्द प्रदान करती हैं, वेद-पुराण जिनकी महिमा गाते हैं, जो औकार अक्षर मन्त्र को वशीभूत हैं। ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।

अंबाम्बर मध्य देश ललिता मंबात्रया राधिताम्
अंबोजोद्भव यागसिद्धवरदा मंभोज पत्रेक्षणाम्।
अंतर्ध्यान विधान तत्व विषदांमंगा सुधी मङ्गणाम्
अङ्गस्थामनुभूति भावन रतां देवीं त्रिवेणींभजे।।१५।।

भावार्थ-
जो मध्य आकाश में शोभायमान होती हैं, तीनों महाशक्तियाँ जिनकी आराधना करती हैं, जो ब्रह्माजी के यज्ञ को सफल करती एवं वरदान देती हैं, जिनकी आँखें कमलपत्र के समान है, जो अन्तर्ध्यान होने की कला में निपुण हैं, जिनकी उपासना सुधीगण किया करते हैं, जो अनुभूति एवं ध्यान में लीन रहती हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।

अर्कामाल निरूपणाम निमिषा मध्यात्मविद्यां सुधाम्
आद्यामक्षतरामनुग्रहकरां क्षीराब्धि मध्यस्थिताम्।
अन्तर्याग तपः प्रसन्न सुमुखी मष्टाङ्ग योगीश्वरीम्
आचार्यामवधूतचर्य महिमां देवीं त्रिवेणींभजे।।१६।।

भावार्थ-
जो सूर्य के समान है, आत्मचिन्तन में रत रहती है, जिनका पलकें नहीं गिरती, जो आध्यात्मविद्या की अमृत हैं, सबकी आदि हैं, धरती की धुरी हैं, दयामयी हैं, क्षीरसागर के मध्य में निवास करनेवाली हैं, यज्ञ और तप से प्रसन्न रहनेवाली है, अष्टाङ्ग योग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान और समाधि) की स्वामिनी है, अवधूताचार्य, सन्यासी लोग जिनकी महिमा गाते हैं, ऐसे त्रिवेणादेवी की मैं वन्दना करता हूँ।

कर्पूरागुरु कुंकुमाङ्कितकुचां कर्पूर वर्णस्थिताम्
कष्टोत्कृष्ट निकृष्ट कर्मदहनां कामेश्वरी कामिनीम्।
कामाक्षीं करुणा रसार्द्र हृदयां कल्पान्तर स्थायिनीम्
कस्तूरी तिलकाभिराम निलयां देवीं त्रिवेणींभजे।।१७।।

भावार्थ-
जिनके स्तन कर्पूर अगर और केसर से अङ्कित हैं, जिनका वर्ण कपूर के समान शुभ्र हैं, जो कष्टकारक उत्कृष्ट एवं निकृष्ट कर्मों को जलानेवाली है, काम की ईश्वरी कामिनी है, कामाक्षी हैं, जिनका हृदय करुण रस से सराबोर है, जिनका कल्पान्तर होने पर भी नाश नहीं होता, जो कस्तूरी तिलक से सुशोभित तथा सुंदरता की धाम हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं बंदना करता हूँ।

खस्थां खङ्गधरां खरासुर हतां खट्वाङ्ग हस्तांखगाम्
खट्वस्थां खललोक नाशनकरां खर्वी खचेन्द्रार्चिताम्।
खाकारां खग बाहनार्चितपदां खण्डेन्दु भूषोज्ज्वलाम्
ख व्याप्तां कलिदोष खंडनकरी देवीं त्रिवेणींभजे।।१८।।

भावार्थ-
जो आकाश में स्थित होती हैं, खड्ग को धारण करती है, दुष्ट असुरों को मारनेवाली हैं, खट्वांग नामक अस्त्र को हाथ में रखती है, आकाश में विचरण करनेवाली है, खट्वांग पर आसीन हैं, दुष्टों का नाश करनेवाली है, कद में छोटी हैं, गरुड़ द्वारा पूजित हैं, आकाश जैसी विस्तृत आकृति वाली हैं, ब्रह्मा से पूजित चरणोंवाली हैं, अर्धचन्द्र रूपी आभूषण से उद्भासित है, आकाश में व्याप्त है तथा कलियुग के दोषों का नाश करनेवाली हैं,ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।

गायत्रीं गरुडध्वजां गगनगां गंधर्व गानप्रियाम्
गंभीरां गज-गामिनीं गिरिसुतां गंधाक्षतालंकृताम्।
गङ्गा गौतम गर्ग सन्नुतपदां गां गौतमी गोमतीम्
गौरी गर्व गरिष्ठ यौवनवतीं देवी त्रिवेणीं भजे।।१९।।

भावार्थ-
जो अपने गायकों (भक्तों) की रक्षा करती हैं, गरुड़ जिनका चिन्ह है, जो आकाश में गमन करती हैं, जिन्हें गन्धर्वों का संगीत प्रिय है, जो गम्भीर है, हाथी के समान मन्द गति से चलती हैं, पर्वत की पुत्री ( पार्वती ) है, गन्ध अक्षतों से अलंकृत है, गङ्गा हैं, गौतम और गर्गमुनि से वन्दित चरणोंवाली हैं, गोस्वरूपा हैं, गौतमी हैं, गोमती हैं, गौरी हैं, और गर्व एवं गुरुता से परिपूर्ण जिनका यौवन है ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं बंदना करता हूँ

घण्टा शङ्खधरां घनस्तनभरां घंटा निनादप्रियाम्
धर्मघ्नां करुणाकटाक्ष लहरी घोरासुरोचाटिनीम्।
घांघ्राणां घटिकां प्रसिद्ध घुटिकां घ्रूणांघ्रुणोचिद्घनाम्
घातां दुष्ट दुरासदां घनकचां देवीं त्रिवेणींभजे।।२०।।

भावार्थ-
जो घण्टा और शङ्ख धारण करती हैं, जिनके स्तन सघन एवं स्थूल हैं, जिन्हें घण्टा का शब्द प्रिय है, जो पाप का नाश करनेवाला है, दया-दृष्टि को लहर फेंकनेवाली है, भयङ्कर राक्षसों का उच्चाटन करनेवाली हैं, जिनकी नासिका लम्बी है, जो ज्ञान स्वरूपा है, जिनके पास दुष्ट लोग नहीं पहुँच सकते और जिनके बाल सधन हैं. ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।

ज्ञानाज्ञान विवर्धिनी गुणनिधिं श्रीराजराजेश्वरीम्
ज्ञानानन्द विचार मुक्तिफलदां ज्ञानेश्वरीं गोचरीम्।
ज्ञानाक्षी सुजनां सुरासुर नतां प्रज्ञान दीपांकुराम्
ज्ञानाढयां कमलां कलंकरहितां देवीं त्रिवेणींभजे।।२१।।

भावार्थ-
जो ज्ञान और अज्ञान को बढ़ानेवाली हैं, गुणों की निधि हैं, राजाओं के राजा की भी शासिका हैं, ज्ञान आनन्द, विवेक एवं मोक्ष को देनेवाली हैं, ज्ञानेश्वरी हैं, इन्द्रियगम्य है, ज्ञान की नेत्र हैं, सुन्दर व्यक्तित्व से पूर्ण हैं, सुर तथा असुरों की आराधनीया है, प्रज्ञान रूपी दीपक की ज्योति हैं, ज्ञान से सम्पन्न हैं, लक्ष्मी स्वरूपा एवं कलङ्क से रहित हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।

चन्द्रार्काग्नि लसत्रिनेत्र कलितां चक्राधिराजस्थिताम्
चन्द्राग्निस्तन भारशोभनवती चंद्रार्क ताराङ्किनीम्।
चेतः सद्भनि योगिनां विहरिणीं चित्सन्न मोदप्रदाम्
चक्राधीश्वर सद्ममध्यनिलयां देवीं त्रिवेणींभजे।।२२।।

भावार्थ-
जो चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि रूपी तीन नेत्रों से सुशोभित हैं, तीर्थराज में स्थित हैं, चन्द्र और अग्नि रूपी स्तनों के भार से सुशोभित हैं, चन्द्र सूर्य और तारा के चिन्हों से युक्त हैं, योगियों के चित्त में विहरण करनेवाली हैं, ज्ञान तथा आनन्द को देनेवाली और तीर्थराज प्रयाग के भवन में निवास करनेवाला हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।

छायामात्मविदां चराचर गतां छत्राधिराजेश्वरीम्
छंदोभिर्विविधैर्वरैस्सहचरां चर्चा भयच्छेदिनीम्।
छन्नास्व प्रभया समस्त जगतां चामीकरा भासिनीम्
छिन्नामासुर कोटि कोटि शिरसां देवीं त्रिवेणींभजे।।२३।।

भावार्थ-
जो आत्मज्ञानियों की छाया हैं, चराचर में व्याप्त हैं, छत्र सुशोभित साम्राज्ञी हैं, विविध प्रकार के उत्तम छन्दों के साथ चलनेवाली हैं, स्मरणमात्र से भय का नाश करनेवाली हैं, अपनी प्रभा से सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करनेवाली हैं, सुवर्ण के समान चमकनेवाली हैं, और करोड़ों असुरों के सिरों को छेदन करनेवाली हैं, उन त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।

जम्बूद्वीप निवासिनीं जयकरीं जाड्यान्धकारापहाम्
जल्पांजन्म विवर्जितां जलधिजां ज्वाला जगज्जीवनीम्।
जाग्रत स्वप्न सुषुप्तिषु स्फुटतरां ज्वालामुखीजानकीम्
जंभाराति समर्चिताङिघ्र युगलां देवीं त्रिवेणींभजे। २४।।

भावार्थ-
जो जम्बूद्वीप की निवासिनी हैं, जय प्रदान करने वाली हैं, अज्ञानता रूपी अन्धकार का नाश करनेवाली हैं, स्पष्ट वक्ता हैं, जन्म-मरण से रहित हैं, समुद्र में उत्पन्न हैं, ज्वाला स्वरूपा हैं, संसार को जिलानेवाली हैं, जागृति स्वप्न एवं सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में प्रकाशित होनेवाली हैं, ज्वालामुखी हैं, जानकी हैं, और इन्द्र जिनके चरणकमलों की पूजा करते हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।

ॐकारामुष लोचनामुलमुलां जाड्यान्ध कारापहाम्
ॐ ॐकार उषध्वजाम्मुनमनां जालंध्र पीठस्थिताम्।।
ॐ ॐ ॐ कृत नुपुरां चित्तपदां जाज्वल्य मानप्रभाम्
कान्तस्थां झटिति प्रसाद करणीं देवीं त्रिवेणींभजे।।२५।।

भावार्थ-
जो ॐकार स्वरूपा हैं, जिनके नेत्र दीप्तिमान हैं, जो उल-उल शब्द से युक्त हैं, अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करनेवाली हैं, ॐकार जिनका ध्वज है, जो उन-उन शब्द से युक्त है,जालन्ध्र के पीठ पर स्थित है, ॐॐॐ शब्द करनेवाली पायल से जिनके चरण सुशोभित हैं, जिनकी कान्ति जाज्वल्यम्गन है, जो रमणीय वाहन पर स्थित हैं, जो शीघ्र प्रसन्न होनेवाली हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।

या योकार विराजितां ययनखाँ निर्मानसीं निष्कृयाम्
निंद्रां निर्विषयां चिदम्बर समां निर्मत्सरां निर्ममाम्।
निर्द्वन्दां प्रथमां प्रबंधकरणी पञ्चाक्षरी पार्वतीम्
निश्चिन्तां विमलां नरेन्द्र विन्रुतां देवीं त्रिवेणींभजे।।२६।।

भावार्थ-
जो 'या' 'या' के स्वरूप में विराजमान हैं, 'य' और 'य' के समान नखवाली है, मन की ( चञ्चल ) वृत्ति से रहित हैं, क्रिया से शून्य है, निद्रा और विषयों से रहित है, चित्स्वरूपा है, आकाश के समान स्वच्छ हैं, ईष्या एवं ममता से रहित हैं, निर्द्वद्व हैं, आद्याशक्ति है, सबका प्रबन्ध करनेवाली हैं, "नमःशिवाय' के पञ्चाक्षर मन्त्र में निवास करनेवाली हैं, पार्वती हैं, निश्चिन्त हैं, राजाओं से स्तुत्य हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।

टंकाभासुर भूभृतां विजयिनी विश्वाधिकां सौख्यदां
विख्यातां वरवीर वाग्भवलतां ब्राग्बोधिनी वासुकीम्।
विश्वामित्र समर्चितां विषहरां विद्याश्रितां वैष्णवीम्
वीरामर्जुन भीमधर्म विन्रुतां देवीं त्रिवेणींभजे।।२७।।

भावार्थ-
जो केवल शब्द नाद से राक्षसों और राजाओं पर विजय प्राप्त करनेवाली हैं, विश्ववरेण्य हैं, सुखदायिनी हैं, प्रसिद्ध हैं, श्रेष्ठ वीरों की वाणी रूपी लता है, वाणी का बोध करानेवाली हैं, वासुकी हैं, विश्वामित्र से पूजित हैं, विषों का हरण करनेवाली हैं, विद्या से सेवित हैं, वैष्णवी हैं, वीर अर्जुन और भीम के धर्म से समन्वित हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।

टंताराधिप सेवितांघ्रि युगलां बैकुण्ठ लोकाधिपाम्
विज्ञानां विरजां विशाल महिमां वीणाधरां वारुणीम्।
वाणीवासव वन्दितां सुखकरां वाग्बोधिनीं वामनाम्
कालां काम कलावती कविन्रुतां देवीं त्रिवेणींभजे।।२८।।

भावार्थ-
जिनके दोनों चरणों की सेवा चन्द्रमा करते हैं, जो वैकुण्ठलोक की स्वामिनी हैं, विज्ञान स्वरूपा हैं, कालुष्य से रहित हैं, जिनकी महिमा अपार है, जो वीणा को धारण करती हैं, वरुण की प्रिय हैं, सरस्वती एवं इन्द्र से वन्दित हैं, सुख देनेवाली हैं, वाणी का बोध करानेवाली हैं, सुंदरी हैं, काल स्वरूपा है, कामकला में निपुण हैं, तथा कवियों द्वारा स्तुत्य हैं, ऐसे त्रिवेणी देवी की मैं वन्दना करता हूँ।

डाकिन्यादि भिरावृतां धवलिनीं डाल्यादि संसेविताम्
रक्षो द्रावणकारिणीं दनुजहां ॐकारिणी डामरीम्।
दीर्घाङ्गी दिविजां दिनेश विन्रुतां दीनार्तिविच्छेदिनीम्
दुर्गा दुर्गति नाशिनीं दुरति हां देवीं त्रिवेणींभजे।।२९।

भावार्थ-
जो डाकिनी आदि से घिरी रहती हैं, जिनका वर्ण उज्वल है, डाला (मातृकागण) आदि जिनकी सेवा करती हैं, जो राक्षसों का संहार करती है, दानवों का विनाश करती हैं, ॐकार शब्द का उच्चारण करती हैं, डामर (तन्त्रशास्त्र) जिन्हें प्रिय है, लम्बे अङ्गोवाली हैं, दिव्या है, सूर्य जिनकी प्रार्थना करते हैं, जो दीन दुखियों की पीड़ा हरनेवाली हैं, दुर्गा स्वरूपा दुखों का नाश करनेवाली है, तथा पापों को भञ्जन करनेवाली है, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।

ढ़क्कानाद विनोदिनी विभवदां दारिद्रय संहारिणीम्
ढ़िं ढ़िं भूषण भूषितां ढ़मढ़मा ढ़ंकार वर्णात्मिकाम्।
ढ़ं ढ़ां ढ़िं ढ़िम वर्तिनीं ढ़ल ढ़लांधम्मिल्ल संशोभितां
सायुज्यां पुरुषार्थ साधनकरीं देवीं त्रिवेणींभजे।।३०।।

भावार्थ-
जो डमरू के शब्द से मनोरंजन करनेवाली हैं, धन देनेवाली हैं, दरिद्रता का नाश करानेवाली है, ढ़िंम ढ़िंम शब्द करनेवाले आभूषणों से विभूषित हैं, ढ़म ढ़मा ढ़म शब्द करनेवाले अक्षरों की आत्मा हैं, ढ़ं ढ़ां ढ़िं ढ़िं शब्द के साथ नृत्य करनेवाली हैं, जूड़े से सुशोभित हैं, और सायुज्य मोक्ष एवं पुरुषार्थ को सिद्ध करनेवाली हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।

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