'वट सावित्री व्रत 2024 : यहां पढ़ें वट सावित्री व्रत की कथा, व्रत में वट और सावित्री, दोनों का है विशेष महत्व
ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या 'वट सावित्री अमावस्या' कहलाती है। इस साल यह उपवास 6 जून 2024 को रखा जाएगा। इस दिन सौभाग्यवती महिलाएं अखंड सौभाग्य प्राप्त करने के लिए वट सावित्री व्रत रखकर वट वृक्ष तथा यमदेव की पूजा करती हैं।
आदर्श नारीत्व का प्रतीक है व्रत
सौभाग्यवती महिलाएं रखती हैं ये व्रत
अखंड सौभाग्य प्राप्त करने के लिए वट सावित्री व्रत का है महत्व
ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या 'वट सावित्री अमावस्या' कहलाती है। इस साल यह उपवास 6 जून 2024 को रखा जाएगा। इस दिन सौभाग्यवती महिलाएं अखंड सौभाग्य प्राप्त करने के लिए वट सावित्री व्रत रखकर वट वृक्ष तथा यमदेव की पूजा करती हैं।
भारतीय संस्कृति में यह व्रत आदर्श नारीत्व का प्रतीक एवं पर्याय बन चुका है। वट सावित्री व्रत में वट और सावित्री, दोनों का विशेष महत्व है। ज्योतिषाचार्य पं.मनोज कुमार द्विवेदी ने बताया कि उत्तर भारत में बरगदाही के नाम से पुकारे जाने वाले सनातन संस्कृति के उत्कृष्ट सनातन जीवन मूल्यों के परिचायक इस व्रत से जुड़ी सावित्री-सत्यवान की पौराणिक कथा से प्रायः हर सनातनधर्मी भली भांति परिचित है।
वैदिक युग का वह अद्भुत घटनाक्रम आज भी पढ़ने-सुनने वाले दोनों को अभिभूत कर देता है। ऐसा विलक्षण उदाहरण किसी अन्य धर्म-संस्कृति में मिलना दुर्लभ है।
कहते हैं कि महासती सावित्री ने वट वृक्ष के नीचे ही मृत्यु के देवता यमराज से अपने मृत पति का पुनर्जीवन हासिल किया था। तभी से वट वृक्ष हिन्दू धर्म में देव वृक्ष के रूप में पूज्य हो गया। तात्विक दृष्टि से विचार करें तो वट पूजन के इस महाव्रत में स्त्री शक्ति की प्रबल जिजीविषा की विजय के महाभाव के साथ हमारे जीवन में वृक्षों की महत्ता व पर्यावरण संरक्षण का पुनीत संदेश भी छुपा है।
वट सावित्री व्रत कथा
कथा के अनुसार सावित्री राजा अश्वपति की पुत्री थी, जिसे राजा ने बहुत कठिन तपस्या करने के उपरांत देवी सावित्री की कृपा से प्राप्त किया था। इसलिए राजा ने उनका नाम 'सावित्री ' रखा था। सावित्री बहुत गुणवान और रूपवान थी, लेकिन उसके अनुरूप योग्य वर न मिलने के कारण सावित्री के पिता दुखी रहा करते थे, इसलिए उन्होंने अपनी कन्या को स्वयं अपना वर तलाश करने भेज दिया और इस तलाश में एक दिन वन में सावित्री ने सत्यवान को देखा और उसके गुणों के कारण मन में ही उसे वर के रूप में वरण कर लिया। सत्यवान साल्व देश के राजा द्युमत्सेन के पुत्र थे, लेकिन उनका राज्य किसी ने छीन लिया था और काल के प्रभाव के कारण सत्यवान के माता- पिता अंधे हो गये थे।
सत्यवान व सावित्री के विवाह से पूर्व ही नारद मुनि ने यह सत्य सावित्री को बता दिया था कि सत्यवान अल्पायु है, अतः वह उससे विवाह न करे। यह जानते हुए भी सावित्री ने सत्यवान से विवाह करने का निश्चय किया और देवर्षि नारद से कहा -"भारतीय नारी जीवन में मात्र एक बार पति का वरण करती है, बारंबार नहीं। अतः मैंने एक बार ही सत्यवान का वरण किया है और यदि उसके लिए मुझे मृत्यु से भी लड़ना पड़े तो मैं यह करने को तैयार हुं।
उसकी मृत्यु का समय निकट आने पर मृत्यु से तीन दिन पूर्व ही सावित्री ने अन्न-जल का त्याग कर दिया। मृत्यु वाले दिन जंगल में जब सत्यवान लकड़ी काटने के लिए गए तो सावित्री भी उनके साथ गई और जब मृत्यु का समय निकट आ गया तथा सत्यवान के प्राण हरने लिए यमराज आये तो सावित्री भी उनके साथ चलने लगी। यमराज के बहुत समझाने पर भी वह वापस लौटने को तैयार नहीं हुई। तब यमराज ने उससे सत्यवान के जीवन को छोड़कर अन्य कोई भी वर मांगने को कहा।
उस स्थिति में सावित्री ने अपने अंधे सास-ससुर की नेत्र ज्योति और ससुर का खोया हुआ राज्य मांग लिया, किंतु वापस लौटना स्वीकार न किया। उसकी अटल पतिभक्ति से प्रसन्न होकर यमराज ने जब पुनः उससे वर मांगने को कहा, तो उसने सत्यवान के पुत्रों की मां बनने का बुद्धिमत्तापूर्ण वर मांगा, यमराज के तथास्तु कहते ही मृत्यु पाश से मुक्त होकर वटवृक्ष के नीचे पड़ा हुआ सत्यवान का मृत शरीर जीवित हो उठा। तब से अखंड सौभाग्य प्राप्ति के लिए इस व्रत की परंपरा आरंभ हो गयी और इस व्रत में वट वृक्ष व यमदेव की पूजा का विधान बन गया।
वट सावित्री व्रत में वट वृक्ष का महत्व
महर्षि श्री अरविंद ने भी इस कथा को मध्य में रखते हुये सावित्री महाकाव्य का रचना की है, जिसमें उन्होंने सावित्री की कथा को आध्यात्मिक जीवन की यात्रा व उसकी अनुभूतियों के रूप में पिरोया है। उसे सावित्री -साधना का आध्यात्मिक ग्रंथ भी कह सकते हैं।
शास्त्रों के अनुसार पीपल वृक्ष के समान वट वृक्ष यानी बरगद का वृक्ष भी विशेष महत्व रखता है । पुराणों के अनुसार, वट वृक्ष के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु व अग्रभाग में शिव का वास माना गया है। अत: ऐसा माना जाता है कि इसके नीचे बैठकर पूजन व व्रत कथा आदि सुनने से मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
यह वृक्ष लम्बे समय तक अक्षय रहता है, इसलिए इसे अक्षयवट भी कहते हैं। जैन और बौद्ध भी अक्षयवट को अत्यंत पवित्र मानते हैं। जैनों का मानना है कि उनके तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने अक्षयवट के नीचे बैठकर तपस्या की थी। प्रयाग में इस स्थान को ऋषभदेव तपस्थली या तपोवन के नाम से जाना जाता है।
हमारी अरण्य संस्कृति में वृक्षों को जीवंत देवताओं की संज्ञा दी गयी है। वैदिक मनीषा कहती है कि हवा के झोंके से झूमते घने छायादार वृक्ष और उनसे गले मिलती लताएं प्रकृति का श्रृंगार ही नहीं, जीवन का अज्रस स्रोत भी हैं। हमारे देश की समग्र सभ्यता, संस्कृति, धर्म एवं अध्यात्म-दर्शन का विकास वनों में ही हुआ था। वैदिक भारत में लोग वनदेवी की नियमित उपासना किया करते थे। स्मृति ग्रंथों में वन संपदा को नष्ट करने वालों के लिए कठोर दंड का विधान किया गया है।
ज्ञात हो कि वृक्ष-वनस्पति हमें हरियाली और फल-फूल देने के साथ ही अपनी प्राणवायु से हमें जीवन और अच्छे स्वास्थ्य का वरदान भी देते हैं। इनका न सिर्फ पर्यावरण संरक्षण में अमूल्य योगदान है, वरन ये ग्रह व वास्तु दोष भी दूर करते हैं। हमारे समूचे पर्यावरण की सेहत इन्हीं मूक देवताओं की कृपा पर टिकी है। इसीलिए तो वृक्ष-वनस्पति के प्रति गहरी श्रद्धा व लगाव भारतीय संस्कृति की अति पुरातन व संवेदनशील परंपरा रही है।
वटवृक्ष कई दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण है, सबसे पहले यह वृक्ष अपनी विशालता के लिए प्रसिद्ध है। दार्शनिक दृष्टि से देखा जाए तो यह वृक्ष दीर्घायु का प्रतीक है, क्योंकि इसी वृक्ष के नीचे राजकुमार सिद्धार्थ ने बुद्धत्व को प्राप्त किया और भगवान बुद्ध कहलाए। बोध ज्ञान को प्राप्त करने के कारण इस अक्षय वट वृक्ष को बोधिवृक्ष भी कहते हैं, जो गया तीर्थ में स्थित है। इसी तरह वाराणसी में भी ऐसे वटवृक्ष हैं जिन्हें अक्षयवट मानकर पूजा जाता है। वट वृक्ष वातावरण को शीतलता व शुद्धता प्रदान करता है और आध्यात्मिक दृष्टि से भी यह अत्यंत लाभकारी है।
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