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आज भी यहां धड़कता है भगवान श्रीकृष्ण का ह्रदय, मूर्ति के रहस्य करते हैं भक्तों को हैरान ​​​​​​​

जगत के नाथ भगवान जगन्नाथजी की दिव्य रथ यात्रा पुरी में शुरू हो गई है। जगन्नाथजी की रथ यात्रा के बारे में स्कंद पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण और ब्रह्म पुराण में भी बताया गया है।
 

जगत के नाथ भगवान जगन्नाथजी की दिव्य रथ यात्रा पुरी में शुरू हो गई है। जगन्नाथजी की रथ यात्रा के बारे में स्कंद पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण और ब्रह्म पुराण में भी बताया गया है। इसलिए हिंदू धर्म में इसका विशेष महत्व बताया गया है। 


धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, जो भी व्यक्ति इस रथयात्रा में शामिल होकर इस रथ को खींचता है उसे सौ यज्ञ करने के बराबर पुण्य प्राप्त होता है। धर्मग्रंथों के अनुसार आज भी भगवान कृष्ण का ह्रदय जगन्नाथजी की मूर्ति के अंदर धड़कता है ,इसके पीछे एक पौराणिक कथा है आइए जानते हैं।


पौराणिक कथा- जगन्नाथ जी की मूर्ति के भीतर है श्रीकृष्ण का ह्रदय


कथा के अनुसार भगवान श्रीविष्णु ने द्वापर युग में मानव रूप में श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया। सृष्टि के नियम अनुसार इस रूप की मृत्यु भी होती है। जब श्रीकृष्ण की लीला अवधि पूर्ण हुई तो वे देह त्यागकर वैकुंठ चले गए। लेकिन जब पांडवों ने उनका अंतिम संस्कार किया तो श्रीकृष्ण का पूरा शरीर तो अग्नि को समर्पित हो गया लेकिन उनका हृदय था जो धड़क ही रहा था। 

अग्नि बह्म के हृदय को जला नहीं पायी। पांडव इस दृश्य को देखकर चकित रह गए। आकाशवाणी हुई कि यह ब्रह्म का हृदय है इसे समुद्र में प्रवाहित कर दें। पांडवों ने श्रीकृष्ण के हृदय को समुद्र में प्रवाहित कर दिया। 


मान्यता है कि जल में प्रवाहित श्रीकृष्ण के हृदय ने एक लठ्ठे का रूप ले लिया और पानी में बहते-बहते उड़ीसा के समुद्र तट पर पहुंच गया। उसी रात वहां के राजा इंद्रद्युम्न को श्रीकृष्ण ने सपने में दर्शन दिए और कहा कि उनका हृदय एक लठ्ठे के रूप में समुद्र तट पर स्थित हैं। सुबह जागते ही राजा इंद्रद्युम्न भगवान श्रीकृष्ण की बताई हुई जगह पर पहुंचे। इसके बाद उन्होंने लठ्ठे को प्रणाम किया और उसे अपने साथ ले आए। 


यह लट्ठा राजा इंद्रदयुम्न ने भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के अंदर इसे स्थापित कर दिया, तब से वह यहीं है।

हर 12 वर्ष में बदली जाती हैं मूर्ति


भगवान श्रीजगन्नाथ की मूर्ति नीम की लकड़ी से बनाई जाती है और हर बारह वर्ष बाद मूर्ति बदली जाती है पर लट्ठा अपरिवर्तित रहता है। आश्चर्य की बात तो यह है कि मंदिर के पुजारियों ने भी इसे कभी नहीं देखा है। इसे नव कलेवर और पुनर्जन्म के नाम से भी जाना जाता है। जब भी यह रस्म निभाई जाती है उस समय पूरे शहर की बिजली काट दी जाती है। इसके बाद मूर्ति बदलने वाले पुजारी भगवान के कलेवर को बदलते हैं। इस समय पुजारी की आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है और हाथों में कपड़े लपेट दिए जाते हैं। 


बगैर देखे और बिना स्पर्श किए इस लट्ठे को पुरानी मूर्ति में से निकल कर नई मूर्ति में स्थापित कर दिया जाता है, उनके एहसास के मुताबिक यह लट्ठा बहुत कोमल है। मान्यता है कि कोई यदि इसको देख लेगा तो उसके प्राणों को खतरा हो सकता है।

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