पहली बार पूर्वांचल की 13 में से 12 सीटों की ईवीएम में नहीं होगा पंजा, कांग्रेस खो रही है अपना जनाधार
कभी पूर्वाचल रहा कांग्रेस का गढ़
कमलापति-टीएन सिंह-मोहसिना सरीखे दिग्गज रहे हैं सांसद
चुनाव मैदान में कहीं सपा तो कहीं तृणमूल कांग्रेस के लिए वोट मांगेंगे कांग्रेसी
बनारस छोड़ कहीं नहीं है कांग्रेसी उम्मीदवार
आपको बता दें कि पूर्वांचल में वाराणसी और आसपास के तीन मंडलों में कुल 13 लोकसभा सीटें हैं। इनमें से ज्यादातर वह लोकसभा क्षेत्र हैं, जहां वर्षों तक कांग्रेस का एकतरफा वर्चस्व रहा है। पंडित कमलापति त्रिपाठी, त्रिभुवन नारायण सिंह, विश्वनाथ गहमरी, श्यामलाल यादव, जैनुल बशर, मोहसिना किदवई, कल्पनाथ राय, रामप्यारे पनिका सरीखे सांसद इस क्षेत्र ने कांग्रेस को दिए हैं। कई सीटों पर हैट्रिक के साथ कांग्रेस उम्मीदवारों ने लगातार चार पांच जीत भी हासिल की है। परिणाम चाहे जो भी रहा हो, कांग्रेस हर चुनाव में कोई न कोई प्रत्याशी जरूर उतारती रही है।
इससे इतर इस बार पूर्वांचल की 13 में से 12 सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार ही नहीं हैं। सपा सहित अन्य दलों से हुए गठबंधन के तहत कांग्रेस को पूरे यूपी में सिर्फ 17 सीटें मिली हैं। इसमें पूर्वाचल से सिर्फ वाराणसी लोकसभा सीट है। यहां से भाजपा प्रत्याशी व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ खुद कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय राय चुनाव मैदान में हैं।
बताते चलें कि इसके अलावा चंदौली, रॉबर्ट्सगंज, जौनपुर, गाजीपुर, घोसी, बलिया, मछलीशहर, सलेमपुर, लालगंज, भदोही, मिर्जापुर, आजमगढ़ लोकसभा क्षेत्र में कांग्रेस ने सपा या अन्य सहयोगी दलों को समर्थन दिया है। लिहाजा इन सीटों पर कांग्रेस कोई प्रत्याशी नहीं उतारेगी। जानकारों की मानें तो लोकसभा चुनाव में यह पहला मौका है, जब कांग्रेस सीधे मैदान में नहीं है।
वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में भी था गठबंधन इससे पहले वर्ष 2017 में हुए यूपी के विधानसभा चुनाव में भी सपा और कांग्रेस में गठबंधन हुआ था। दोनों दल मिलकर चुनाव लड़े थे। इस गठबंधन में कांग्रेस ने 105 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे, जबकि 298 सीटों पर सपा प्रत्याशियों के समर्थन में प्रचार किया था। तब कांग्रेस सात सीटों पर जीत दर्ज कर पाई थी। वहीं सपा को 47 सीटें मिली थीं। इस गठबंधन को कुल 28 प्रतिशत वोट मिले थे। इसमें सपा को 21.8, जबकि कांग्रेस को 6.2 प्रतिशत वोट हासिल हुआ था।
1977 के बाद बदला था कांग्रेस का चुनाव निशान
वर्ष 1977 से पहले कांग्रेस का चुनाव निशान दो बैलों की जोड़ी थी। इमरजेंसी के बाद मिली करारी हार के इंदिरा गांधी ने कुछ लोगों की सलाह पर चुनाव निशान बदलकर हाथ का पंजा कर दिया। इसके बाद से लोकसभा के हर चुनाव में यह निशान मतपत्र और ईवीएम में रहा है। खांटी कांग्रेसी प्रत्याशी को जाने, समझे बगैर सिर्फ यह निशान देखकर ही वोट देते रहे, मगर इस बार उन्हें यह चुनाव निशान नहीं दिखेगा।
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